हवाओं में ही रहा है हरदम सफ़र मेरा
फलक में मील का पत्थर कंहा से ढूँढू
जिस साख पे बनाया बाया ने घोसला
वो दरख़्त ही न रहा, घर कंहा से ढूँढू
रेत में ही ग़ुम हुआ, है समंदर मेरा
अब, तिश्नगी के लिए आब कंहा से ढूँढू
मंज़र देखने के लिए आखें नहीं है रौशन
अब,तेरे लिए नया आफताब कंहा से ढूँढू
मुकेश इलाहाबादी -----------------
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