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Wednesday, 4 July 2012

महर्षि पतंजलि योग दर्शन ---------- (vyaktigat note)

 मित्रों यह लेख दो साल पहले लिखना शुरू किया था - जो आप लोगों के समक्ष आपकी प्रतिक्रया के लिए प्रस्तुत है - यदि पाठकों को पसंद आता है तो आगे भी ये लेखमाला जारी राखी जा सकती है - अतः आपके विचार और सुझाव का स्वागत है ---
 
                             ओम श्री गणेषाय नमः

महर्षि पतंजलि योग दर्शन ----------

योग। योग ही तो हैं हम। योग के सिवा कुछ हो भी कैसे सकते हैं। क्योंकि हम सिर्फ एक योग हैं महा योग। योग शरीर और मन का। योग मन और चित्त का। योग चित्त और आत्मा का। योग आत्मा और परमात्मा का।

हम कहीं से भी तो खण्ड नही हैं। खण्ड होते तो हम अखण्ड से न जुड पाते। कोई संभावना ही न होती। खण्ड होते तो किसी से प्रेम न कर पाते। खण्ड होते तो हम संवेदनशील न होते, किसी और के प्रति।

खण्ड खण्ड होते तो र्धम की कोई अवधारणा न होती। खण्ड खण्ड होते तो समाज की कोई मुकम्मल तस्वीर न होती। खण्ड खण्ड होते तो परमात्मा को पाने का उस परमप्रसाद को पाने का  कोई उपाय ही न होता।

हम खण्ड खण्ड नही हैं। हम एक जोड हैं, योग हैं। जिसका गवाह यह सारा पसारा संसार है। चिडिया चिरौन्धो की गुनगुन उस महा योग का ही तो संगीत है। फूलों की महमह खुषबू उसी महायोग से तो निंस्रत होती है। सागर की हरहराती लहरें हों कि पहाडों की उंमुक्त चोटियां, या कि नीला आसमानी अनंत आकाष। या कि शावक की मासूम कुलांचे। बच्चों की मासूमियत। सभी कुछ तो गवाही दे रहे हैं। उस परमात्मा की। उस अनंत योग की । उस महायोग की। 

उस योग की  जिसे हम भूल बैठे हैं। या कि हठ कर बैठे हैं, न याद करने की । या कि उस अनादि अनुभव को जो हजारो लाखों  जन्मो के बाद महज एक पुरानी याद बन के रह गयी है। और अनुभूति कहीं खो गयी हो। विस्म्रत हो गयी हो। वह रुहानी खुशबू  जो किसी लहर की तरह अनंत सागर मे खो गयी है।

यदि हम एक बार फिर किसी तरह उस अनादि अनुभव  को जी सकें  दोहरा सकें। कि हम योग ही हैं। योग, शरीर और मन का। योग, मन व चित्त का। योग, चित्त और आत्मा का। योग आत्मा व परमात्मा का। तो फिर सचमुच हमे कोई जरुरत ही न रह जायेगी किसी पतंजली की, किसी लाहिडी महाषय की किसी योगानंद  की या कि किसी बाबा रामदेव की।

इनकी जरुरत तो महज इस लिये आन पडी हैं कि हमने अपने आप को खण्ड खण्ड मान लिया है। बिखरा हुआ मान लिया है। और यही अवधारणा तो हमे दूख के महासागर मे डुबाती आयी है। यही अवधारणा ही तो हमारा अज्ञान है अविदया है।  यदि हम एक बार भी, फिर अपने मूल स्वरुप को याद कर सकें , महर्षि पतंजलि के क्रिया योग के अदभुत सूत्रों दवारा। उस अष्टांग योग के दवारा जिसे महर्षि  पतंजलि ने मनुष्यता के उपर दया करके आज से लगभग दो हजार साल पहले  प्रतिपादित किया है। तो हम अपने सारे कष्टों व अज्ञान से निजात पा सकेंगे।

चार अध्यायों व एक सौ पंचानबे सूत्रों मे पिरोया अष्टांग योग र्दषन महज एक दर्शन  नही है। एक विचारधारा नही है। एक जीवंत अनुभव है।
पतंजलि के ये सूत्र,  सूत्र नही क्रांति सूत्र हैं। ये सूत्र सूत्र नही अंगारे हैं। जो तपाते नही हैं। बल्कि भस्म करदेते हैं। देते हैं एक रुहानी ठंडक । ये सूत्र बुझा देते हैं अंहकार की धधकती आग को। ज्ञान की धधकती ज्वाला को।
भारत की छह महान विचारधाराओ। षड र्दषन न्याय, वैवेशिशिक ,सांख्य,योग,मिमांसा,वेदांत मे, पंतजलि योग दर्शन का महत्व सबसे अलग है। मेरे देखे तो विश्व  के तमाम दर्शन एक तरफ रख दिये जायें और अष्टांग योग दर्शन एक तरफ तो अष्टांग योग ही भारी पडेगा। क्योंकि  यह महज शब्दों का मकड जाल नही है। मात्र विचारो का खण्डन मण्डन नही है। बल्कि, यह ज्ञान और क्रिया का योग है, जो योग कराती है परम सत्ता से। संसार का अस्तित्व भी तो महज क्रिया ही तो है। क्रिया बंद संसार खत्म। संसार का अस्तित्व ही तब तक है जब तक क्रिया है। इसी लिये पतंजलि कह सके कि क्रिया को क्रिया से ही जानो तभी अक्रिया मे उतर सकोगे। सत्य को जान सकोगे। और वे मानवता को दे सके एक अनमोल भेंट। क्रिया योग विज्ञान। पतंजजलि योग विज्ञान।  

पतंजलि ने अपना सारा ज्ञान सारा विज्ञान सूत्र मे कहा है। इषारे मे कहा है। व्याख्या दूसरो के उपर छोड दी है। क्योंकि यहां पतंजलि जिस स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं। जिस अनुभव की बात कर रहे हैं। वहां ज्यादा से ज्यादा इशारा किया जा सकता है। क्योंकि वह सत्य कहा ही नही जा सकता बताया ही नही जा सकता सिर्फ अनुभव किया जा सकता है। कहते ही वह बात झूठ हो जाती है, इसलिसे पतंजलि ने सिर्फ इशारा किया है। वह जानते थे कि जितना ज्यादा शब्दों का इस्तेमाल किया जायेगा बात उतनी ही झूठी होती जायेगी। और फिर झूठ से झूठ ही जाना जा सकता है।

इसलिये पतंजलि ने व्याख्या साधक के उपर छोड दी है। क्योंकि जो व्याख्या अनुभव से निकलेगी वही सच होगी। बाकी सब कुछ झूठ होगा। और इसीलिये समय समय पे इतनी व्याख्यायें होती आयी हैं। और होती रहेंगी।   

योग सिखाता है आप अपने अंदर के रस से कैसे रसमय हों। योग सिखाता है आप अपने अंदर के आनंद से कैसे आनंदित हों। क्योंकि भगवत्ता तो रसमय है।
रसों वैसरू
जब तक हम अपने अंदर के रस से परिचित नही हैं। अपने आप मे आनंदित नही होते तब तक ही हम खण्ड खण्ड हैं। वर्ना हम हैं ही अखण्ड। हम हैं ही योगी, महायोगी।
 
मेरे देखे तो योग को योग न कह के वियोग कहना ज्यादा ठीक होगा क्योंकि इसमे कुछ जोडा नही जाता बल्कि छोडा जाता है। घटाया जाता है। घटाया जाता है अपनी व्रत्तियों को चित्त से ताकि चित्त षुद्ध चैतन्य स्वरुप हो सके। आनंद स्वरुप हो जाये।

पर हम कहते हैं इसे योग क्योंकि व्रत्तियों से निव्रत्त हो कर अपने को जोड लेते हैं उस चिदानंद से। परम आनंद से जो हमारा मूल स्वरुप है। जो वास्तव मे हम है ही।
योग अनुभव है। योग यात्रा है। जन्मो जन्मो की।
अष्टांग योग की जितनी भी सिद्धियां हैं, उन सबका सम्बंध मनोमय शरीर से समझना चाहिये ।योग तंत्र की जितनी भी साधनाएं हैं। उन सब मे कुण्डली साधना सबसे सवो्रपरि है। मनोमय षरीर रहकर जीवन यापन करने वाला व्यक्ति कुण्डली को जाग्रत कर सकता है। और असकी षक्ति की सहायता से अपनी आध्यत्मिक उन्नति भी कर सकता है।
योग क्या हैै। ‘योगश्रितवव्रतिनिरोधरू’ अर्थात चित्त की बाहय व्रत्तियो का सर्वथा रुक जाना। योग का क्या फल है।‘तदा द्रष्टूरू स्वरुपेअवस्थानम’ अर्थात द्रष्टा ‘आत्मा’ की अपने स्वरुपमे स्थिति, क्योंकि द्रस्वप्टव्य भी आत्मा का स्वरुप नही है। अपने स्वरुप मे द्रष्टा और दर्षन कुछ रहता ही नही है। अब यहां यह प्रश्न  उठता है कि जब द्रष्टा आत्मा ही है तो वह क्या सदा सर्वदा अपने स्वरुप मे अवस्थित रहेगी। तो इस प्रष्न के उत्तर मे पतंजलि कहते हैं। ‘व्रत्तिसारुप्यमितरत्र’ यदयपि द्रष्टा पुरुष स्वभाव से असंग और निर्लिप्त है परंतु चित्तरुपी जल की व्रत्ति तरंगो से तरंगायित सा भासता है। इसलिये व्रत्तिरुपी तरंगो के रहने पर द्रष्टा मे सारुप्य होता है। और अपने मे भोक्त्रत्व ,द्रष्टव्य और भाग्यत्व,द्रष्टव्य शक्ति और चित्त मे द्रष्टतव और भोगत्व शक्ति का अनुभव सा करता रहता है। चित्त व्रत्तियों के निरुद्ध होने पर वह स्वरुप में अवस्थित हो जाता है।जो योग साधना का फल है। इस चतुष्टयी की व्याख्या ही योगर्दषन मे पतंजजि ने की है।

पतंजलि योग शास्त्र  हमे ले जाता है परम स्वास्थ की ओर।
स्वास्थ का अर्थ ही है। जो अपने स्व अर्थात स्वभाव मे स्थि अर्थात स्थित है।
जो अपने स्वभाव मे स्थित हो जाता है। वही परस स्वास्थ को उपलब्ध हो जाता है। वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से भी देखें तो हम जब अपने षरीर के स्वभाव के विपरीत जाते है  तभी अपनेलिये उपद्रव ‘रोग’ पैदा करलेते हैं।
पतंजलि योग महज शारीरिक संपन्नता ही नही  दिलाता बल्कि हमे आध्यात्मिक आकाष चरम स्वास्थ की स्थित मे किसी ध्रुव तारे की तरह प्रतिष्ठित करता है।

सामान्यतह मनुष्य जिसे योग समझता है। वह महज षारीरिक उछलकूद है। चाहे वह योग के नाम पे किया जाने वाले आसन हों या प्राणायाम हों। इन सब क्रियाओं का व्यायाम से ज्यादा महत्व नही है। हां यह जरुर है यह व्यायाम हमे स्वास्थ की ओर ले जाते है। जो आगे की यात्रा का कारण बनते है। पर यह तो योग के दो एक ही अंग है।
 
अष्टांग योग को पतंजलि ने चार चरर्णो मे व्याख्यायित किया हैं। समाधि पाद। साधना पाद। विभूति पाद। कैवल्य पाद।

समाधि पाद

पतंजलि बात शुरू करते है समाधि से। योग के स्वरुप का विवेचन करते हुए। वैसे तो इस पाद की रचना समाहित चित्त वाले योगियों के लिये की है। साधारण कोटि  के जीवो के लिये भी ईष्वर प्राणिधान का स्वरुप बता दिया है, परंतु इसमे चित्त की शुद्धि के जो उपाय बताये गये हैं वे कष्ट साध्य हैं। इसलिये महर्षि ने साधन पाद मे कुछ सरल उपायों का विवेचन किया है। 
मनुष्य षरीर मे रह कर परम सत्य के अनुभव की अंतिम अवस्था समाधि ही है। और यह बडी विचित्र बात है कि पतंजलि अपनी बात इस अंतिम परिणति से ही षुरु करते हैं। बात विचित्र जरुर है पर है वैज्ञानिक। क्योंकि समाधि का अनुभव ही हमारा वास्तविक स्वरुप है। इसलिये वे अपनी बात समधि से ही शुरू कर सके क्योंकि जो अंतिम है वही कहीं हमारा प्रारंभ भी है।

हमारी सबसे बडी दिक्कत है कि हम बेहोशी मे सारा जीवन जीते हैं। होश मे ही खाते है, पीते हैं,सोते हैं, जागते हैं। और बेहोशी  मे ही पैदा होते हैं। अरे भाई जो बेहोश मरेगा वह बेहोश ही तो पैदा होगा। और बेहोषी ही हमारा दुख है। समाधि हमे होश की तरफ ले जाती है। होष के सूत्र देती है। लिहाजा जो हो्रष पूर्वक जी सकेगा वोही संसार के बंधन से मुक्त होने की  कला जान सकेगा। क्योंकि र्मुछा ही बांधती है।
जिस दिन बेहोषी टूटी, र्मुछा टूटी उसी दिन संसार की यात्रा खत्म।
समाधि द्वार बनती है अनंत यात्रा का। समाधि होष ही बन जाने का कारण बनती है। समाधि प्रथम बिंदु बनता है अनंत यात्रा का इसीलिये पतंजलि का सीधे समाधि से यात्रा करना समाधि की बात करना तर्कयुक्त व वैज्ञानिक है।

समाधि द्वार बनती है उस अनंत अनुभव का, उस असीम आनंद का जो हमारा आरंभ है यात्रा है परिणति भी, और लक्ष्य भी। किंतु हमे इस लक्ष्य और परिणति का बोध समाधि मे ही अनुभव होता है। क्योंकि कोई भी यात्रा द्वार से ही निकल के प्रारंभ की जा सकती है। उसके पहले तो हम कोठरी मे बंद होते है। काल कोठरी । कोठरी अज्ञान की । कोठरी अंहकार की, आलस्य संचित कर्मो की।
जब हम समाधि मे उतरते है। तो एक नया द्वार खुलता है। अनंत को नये नये अनुभवों का ज्ञान का। इसी लिये समाधि से बात करना ही वैज्ञानिक है।
जब तक हम समाधि मे नही उतरते तब तक हम कितनी भी बातें करलें कितना भी विवाद करलें। कितना भी उछलकूद करलें। अनुलोम विलोम करलें। उन सब को कोई मतलब नही। कोई फायदा नही। वह सब महज एक व्रत्त मे घूमना है गोल गोल गोल। कोल्हू के बैल सा।
समाधि का जितना प्रयोग तिब्बती सभ्यता ने किया है उतना दुनिया की किसी सभ्यता ने नही किया है। उनका पूरा विज्ञान ही समाधि आधारित है।एक तिब्ब्बती समाधिस्थ व्यक्ति से ही मंत्र पूंछेगा, जडी बूटी पूंछेगा, ज्ञान पूछेगा। उनके लिये समाधिस्थ व्यक्ति ही सारी समस्याओं का हल करने वाला होता है।
प्रक्रति की तरह समाधि भी त्रिगुणात्मक है। सात्विक,राजसिक व तामसिक।
समाधि के संर्दभ मे आगे चिचार किया जायेगा।
इसके अलावा, योग का उपक्रम,योग का लक्षण, योग के व्रत्ति लक्षण, योग के उपाय, योग के विभेद ये पांच विषय प्रथप पाद यानी समाधि पाद मे निरुपित किये गये हैं।
योग आत्मा का विज्ञान है। ब्रम्ह विज्ञान है।


पहला सूत्र ...... अथ योगानुषासनम

अथ योग अनुषिष्ट हो रहा है।
अथ अर्थात अब। अर्थात ‘योग की अंतिम उपलब्धि’। अर्थात अभी से। अर्थात उस वक्त से जिस वक्त से हम योग की तरफ उन्मुख होते हैं।
यहां पतंजलि यह मान कर चल रहे हैं। कि योग की पारंभिक उपलब्धि हम प्राप्त कर चुके हैं। बात सच भी है और काफी महत्व वा वैज्ञानिकता लिये हुए है। क्योंकि जैसे ही हम योग की तरफ उन्मुख होत हैं। तो कही न कहीं हम यह मान लेते हैं कि हमारी सत्ता परम सत्ता से अलग नही है। और जब हमने यह मान लिया है तो कल जान भी लेंगे। और मान भी इस लिये रहे है कि कहीं न कहीें हमारी जडें उस परम आनंद व परम सत्ता से जुडी हैं। जहां असीम स्वतंत्रता है। असीम आनंद है। जो हमारी अंतिम परिणति है। और  आज नही तो कल हमे जो हो ही जाना है।

अथ अर्थात अब। इसे हम इन अर्थों मे भी तो समझ सकते हैं। जब जागे तभी सबेरा। अर्थात हमने अपनी आंखे खोल ली है।उस असीम के दर्षन के लिये। उस सूरज के लिये पलक पांवडे बिछा दी है। अब हमने अपनी मंजिल जान ली है। अब           तो बस दूरी तय करने की बात रह गयी है। तो दूरी आज नही तो कल तय हो जायेगी। हो ही जानी है।
इसी लिये पतंजलि कह सके ‘अथ’ अर्थात योग का अंतिम अध्याय यहां से शुरू होता है।
अथ षब्द यह भी बताता है कि पतंजलि से पहले भी योग की परंपरायें थी। जिन्हे महर्षि पतंजलि ने व्यवस्थित रुप दिया। और कह सके अब योग का अंतिम व व्यवथित रुप प्रस्तुत है। जिसके आगे कुछ और नया जोडने को नही रह जाता। और पतंजजि का दावा मात्रा दावा ही नही रहा। दो हजार सालो मे इससे ज्यादा वैज्ञानिक विधि आज तक नही ढूंढी जा सकी।

इसके अलावां जो दूसरी महत्व पूर्ण बात पतंजलि कह रहे है। वह अंतिम अध्याय। अंतिम भी इसी लिये कह सके कि जब मंजिल तय हो ही चुकी है। तो अब कोई कारण नही बनता वहां न पहुचने का।

अथ के अर्थ के सम्बंध मे ओषो कहते हैं। यदि तुम्हारा मोहभंग हुआ है,यदि तुम आषारहित हुए हो, यदि तुमसब इच्छाओं की र्व्यथता को पूरी तरह जान लिया है, यदि तुमने देखा है कि तुम्हारा जीवन अर्थहीन है, और जो कुछ भी अब तक तुम कर रहे थे वह सब बिलकुल निर्जीव होकर गिर गया है, यदि भविष्य मे कुछ भी नही बचा है, यदि तुम समग्र रुप से निराषा मे डूब गये हो, जिसे कीर्कगार्द ने तीव्र व्यथा मे हो , पीडित। नही जानते कि क्या करना है, कहां जाना है , किसकी सहायता खोजनी है, बस पागलपन या आत्महत्या या म्रत्युकी कगार पर खडे हो, यदि तुम्हारे पूरे जीवन का ढांचा अजानक र्व्यथ हो गया है। ओैर यदि एैसा क्षण आ गया है तो पतंजलि कहते हैं  अब योग का अनुषासन।
और ऐसा क्षण नही आया है तो योग के अघ्यन का कोई मतलब न होगा। वह हमारे प्राणों प्राणों  को स्पंदित न करेगा। वह हमारी आत्मा को न छू सकेगा।

अथ का अर्थ यहां मंगल व अधिकार के रुप मे भी लिया गया है।

सूत्र का दूसरा शब्द  है योग। मनुष्य शुरुआत  से ही अपने अस्तित्व व संसार के  अस्तित्व को लेकर  कुछ मूलभूत प्रश्नों से जूझती आयी है। जिनका उत्तर हर सभ्यता व समाज अपने अपने ढंग से खोजती आयी है। और आगे भी खोज जारी रहेगी। उन तमाम रास्तो मे भारत दवारा खोजे गये कुछ रास्ते मील का पत्थर साबित हुए हैं। जिनसे हजारो लोगो ने लाभ उठाया है। उन रास्तो को या उन तरकीबो को ही भारत ने योग कहा। राजयोग ,भक्ति योग,ज्ञान योग ,कर्म योग,हठ योग, तंत्र योग,सहज योग आदि कई योग इन्ही रास्तो के नाम हैं। जिनसे मानवता अपने तमाम शंका समाधान से निजात पाती रही है।
योग का आदि वक्ता हिरण्यगर्भ को माना जाता है।‘हिरणयगर्भे योगस्य वक्ता नान्यो पुरातना’ हिरण्यगर्भ का उल्लेख श्र्रगवेद और यजुर्वेद मे मिलता ही है। वास्तव मे हिरण्यगर्भ नाम ही ऐसा है जो योग की प्रक्रिया की ओर संकेत करता है। हिरण्य अर्थात माया। माया के गर्भ मे रहने के कारण ही तो पुरुष अपने स्वरुप को भूला हुआ है। और उसकी चित्तव्रत्तियां बाहय जगत मे दौड रही हैं। यदि उनका निरोध हो जाय तो निष्चित ही वह अपने स्वरुप मे अवस्थित हो जाय। इसी का नाम योग मे कैवल्य है। यह किस प्रकार हो सकता है। इसका उपाय योग दर्षन का प्रतिपादय विषय है। एक प्रकार से हम कह सकते हैं कि योग सूत्रों का महत्व कम नही, क्यांकि उसमे जीव ‘द्रष्टा’, चित्त ‘मन’ चित्त की व्रत्तियां ईष्वर तथा भौतिक जगत आदि पर भी विचार हुआ है।


तीसरा शब्द  अनुषासन काफी महत्व का है। यह षब्द अनुबंध चतुष्टय का सूचक है।
इस अनुबंध चतुष्टय से आशय  .. विषय, प्रयोजन, अधिकारी, और संबंध से है। ग्रंथ का विषय यहां योग है। जिसकी सूचना पहले ही सूत्र से मिल जाती है।
अनुषासन का अर्थ है अपने भीतर एक व्यवस्था निर्मित करना।
ओषेा कहते हैं योग अनुषासन है का मतलब कि अपने अंदर एक एकजुट केंद्र  का निर्माण करना। अनुषासन का अर्थ है डिसीप्लिन। अनुषासन का अर्थ है सीखने की क्षमता। जानने की क्षमता।
इस सूत्र की व्याख्या करते हुऐ व्याख्याकारों ने चित्त की पांच अवस्थाओं बतायी हैं। जिन्हे हम योग की भाषा मे चित्त की भूमि कहेगें।
क्षिप्त,मूढ,विक्षिप्त,एकाग्र और निरुद्ध।
क्षिप्त भूमि।



दूसरा सूत्र ..... योगष्चित्तव्रत्तिनिरोधरू

चित्त व्रत्ति के निरोध का नाम योग है।
योग की परिभाषा के साथ शुरू होता है यह सूत्र। दूख के मूल कारण को बताते हुए शुरू होता है यह सूत्र। दुख से दूर होने का सूत्र देता है यह सूत्र।अदभुत सूत्र है यह।
‘योगष्चित्तव्रत्तिनिरोधरू’। चित्त की व्रत्तियों का निरोध ही योग है।
आइये उतरते हैं सूत्र मे।

‘चित संज्ञाने’ धातु से ‘चित्त’ षब्द बनता है। अर्थ है ‘ज्ञान प्राप्ति का साधन’। यह ज्ञानस्वरुप ‘जीवात्मा’ के संयोग से अथवा प्रतिबिंब के पडने से बिम्ब.बिम्बी भाव को प्राप्त हो एवं चेतनवत बनकर ‘जीवात्मा’ के लिये ज्ञान तथा कर्म दवारा समस्त भोगो्र का सम्पादन करता है। जीवात्मा सहित सब संस्कारों वा वासनाओं तथा स्म्रति को ‘बीज रुप’ से  अव्यक्तभाव से अवधारण करने वाला, आत्म संयोग से सदा विशेष प्रख्यातषील वा सुदीप्त एवं गतिशील बना हुआ सदा सूक्ष्मप्रण रुपी क्रिया वा जीवनी षक्ति का उत्पादक ‘जीवात्मा’ के स्वरुप का प्रकाषक वा दयोतक, आत्मा सयोग से सदा सचेतन सा भासने वाला, और संकोच विकासषील होने से ‘मध्यमपरिणामी’ है।
चित्त की पांच भूमि मानी गयी है। क्षिप्त,मूढ, विक्षप्त, एकाग्र और निरुद्ध।

मन मे अचानक स्फुरण होता है। एक भाव उठता है। उस भाव को हम पुष्ट करते हैं तो विचार बनता है। उस विचार को जब हम दोहराते है। या उस विचार के अनुसार गति करते है। तो विचार संकल्प बन जाता है। और वह संकल्प पुष्ट होकर व्रत्ति बनता है। वही व्रत्ति हमारे सुख दुख का कारण है।
जिसे हम साइकिक इंप्रेषन भी कह सकते है ।

 मुकेश इलाहाबादी

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