सांख्य की माने तो आदि तत्व ‘महतत्व’ दो तत्वों का योग है। महायोग। जो दो
होकर भी एक हैं और एक होकर भी दो हैं। यानी ‘अद्वैत’। वही अनादि तत्व
प्रक्रिति और पुरुष जब कभी परासत्ता की क्रीड़ावश या यूं ही लीलावशात किसी
विक्षोभ यानी रज; यानी क्रिया करती है तभी यह प्रक्रति और पुरुष अलग अलग
भाषते हैं अलग अलग जन्मते और मरते हैं। अलग अलग योनियों में अलग अलग रुपों
में। लेकिन ये दोनो अनादि तत्व एक बार फिर ये एक ही होने की अनुभूति के
लिये भटकते रहते हैं। उसी रज; यानी क्रिया के कारण जो किसी इड़ा की तरह
श्रद्धा यानी प्रक्रिति को पुरुष यानी मनु से मिलने नही देती। कारण रज;यानी
क्रिया का भी अपना आर्कषण है अपना प्रभाव है। इसलिये कहा जा सकता है जबतक
क्रिया का आर्कषण कायम रहेगा तबतक श्रद्धा व मनु एकाकार नही हो पाते बार
बार मिलने के बावजूद।
इसी बात को तंत्र इस तरह कहता है। आत्म तत्व जब परमात्म तत्व से अलग हुआ ‘अहं’ के रुप में तो उसी वक्त उसका प्रतिद्वंदी ‘इदं’ तत्व भी अलग हुआ था। पहला पुरुष प्रधान दूसरा स्त्री प्रधान । दोनो ही तत्व दो रुप एक ही सत्ता के अलग अलग दिषाओं में जन्म लेने लगे अलग अलग रुपों में फिर से एक बार मिल जाने की ख्वाहिष में।
जब कभी दोनो खण्ड एक दूसरे से फिर से एक बार मिल लेते है। तब एक अदभुत घटना घटती है। उसे ही कहते हैं राधा व कान्हा का मिलन। राम व सीता का मिलना। या फिर हीर का रांझा से मिलना या कि किसी सोहनी का महिवाल से मिलना।
और तभी होता है योग - महा योग
मुकेश इलाहाबादी
इसी बात को तंत्र इस तरह कहता है। आत्म तत्व जब परमात्म तत्व से अलग हुआ ‘अहं’ के रुप में तो उसी वक्त उसका प्रतिद्वंदी ‘इदं’ तत्व भी अलग हुआ था। पहला पुरुष प्रधान दूसरा स्त्री प्रधान । दोनो ही तत्व दो रुप एक ही सत्ता के अलग अलग दिषाओं में जन्म लेने लगे अलग अलग रुपों में फिर से एक बार मिल जाने की ख्वाहिष में।
जब कभी दोनो खण्ड एक दूसरे से फिर से एक बार मिल लेते है। तब एक अदभुत घटना घटती है। उसे ही कहते हैं राधा व कान्हा का मिलन। राम व सीता का मिलना। या फिर हीर का रांझा से मिलना या कि किसी सोहनी का महिवाल से मिलना।
और तभी होता है योग - महा योग
मुकेश इलाहाबादी
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