दिन, सोख लेता है
दिन,
सोख लेता है
सारी उदासी
शाम होते ही
यादों के कैकटस
उग आते हैं
अपना मुह फाड़े
दरांती दार कांटो के साथ
फिर,
रात रोती है
देर तक - सुबुक - सुबुक
अपने एकाकीपन मे
पर,
सुबह होते ही
अपने आंसू पोछ
मुस्कुरा देती है
आपा धापी से लबरेज़
दिन भर के लिए
मुकेश इलाहाबादी -----
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