ज़िन्दगी से रस्सा कसी है,
ज़िन्दगी से रस्सा कसी है,
फिर भी आदत में मस्ती है
चांदनी को भी डपट देता हूँ
जो वो ज्यादा मचलती है !
गीत गुनगुनाता हूँ प्यार के
मगर आदत में कड़क सी है
मैखाना छोड़ के उठ जाता हूँ,
जैसे ही जबान लडखडाती है
बाज़ार से क्या लाऊँ, जेब में
फकत दो चार अठन्नी पडी है
मुकेश इलाहाबादी --------------
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