न चरागे इश्क जलाते हैं,
न चरागे इश्क जलाते हैं,
न रुख से नकाब हटाते हैं
कभी दरीचा खोलते हैं कभी
चिलमन से झाँक जाते हैं
कभी आँचल उंगली से लपेटे
कभू अपना पल्लू संभाले है
मेसेज तो हमारा पढ़ लेते हैं
पर जवाब कभी नही आते है
हमें कहा बोसा तो दे ते जाइए
तो 'धत्त' कह के भाग जाते हैं
मुकेश इलाहाबादी -------------
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