Pages

Thursday, 29 June 2017

आदम का बाग़

सुनो,
कल्पना करो

एक खूबसूरत और बहुत खूबसूरत बाग़ है
आदम का
जंहा फूल कभी मुरझाते नहीं - बिलकुल तुम्हारी ख़ूबसूरती की तरह
जंहा तुम्हारी साँसों की भीनी भीनी खुशबू चंहु और बिखरी रहती है
सोने और चांदी की रंगीन तितलियाँ उड़ती रहती हैं

उस आदम के खूबसूरत बाग़ में
इत्र के फुहारे और
इत्र की ही नदियां बहती हैं
उस बाग़ में बारहों माह और तीन सौ पैसठ दिन बसंत रहता है
न तो सूरज इतना गरम होता है कि तपन हो
न चाँद इतना सर्द होता है कि गलन हो

सब कुछ खुशबू - खुशबू सा
चन्दन -चन्दन सा
महका - महका सा

अदम के उस बाग़ की
सुबह- शाम और रात तीनो सुनहरी होती है
वातावरण में - कंही बांसुरी बजती रहती है
तो कंही अनहत नाद की गूँज होती है
कंही कोइ कोयल पंचम सुर में कूकती है
और फुर्र से आस्मां में उड़ जाती है
तो कंही मोर अपनी सतरंगी छटा के साथ थिरकता मिल जाता है

ऐसे खुशनुमा - खुशनुमा बाग़ में
ऐसे खुशनुमा- खुशनुमा मौसम में
तुम हो
मै हूँ
और ये खूबसूरत अदम का बाग़ हो
जिसकी गवाही पैरों के नीचे ज़मी दे रही है
सिर के ऊपर चाँद सितारे चमक - दमक रहे हैं

तुम और मै -  दोनों बगल - बगल चले जा रहे हैं
इत्र की नदी के किनारे - किनारे

तुम - ' देखो न ! चाँद कितना प्यारा लग रहा है ?'
मै - ' तुम्हे चाँद पसंद है ?'
तुम हंस देती हो

तुम कितना हंसती हो ?
तुम और हंसने लगती हो
- तो क्या मै  न हँसू ?
- अरे ! मैंने ऐसा कब कहा ?
   मै चाहता हों तुम क़यामत तक हंसती रहो इसी तरह
   और, मै तुम्हे देखता रहूँ इसी तरह
तुम और ज़ोर से हंस देती हो
- अच्छा ये बताओ तुम्हे ये चाँद कितना अच्छा लगता है ?
तुम - दोनों हाथ फैला के - इत्ता
- बस इतना ?
तुम नाराज़ हो  जाती हो
तुम्हे तो हर बात में मज़ाक सूझता है

अब मै हंस देता हूँ
मै कुछ और पूछना चाहता हूँ
तुम्हे अपनी ऒर खींचना चाहता हूँ

तुम - आओ चलो नौका विहार करते हैं

फूलों के नाव की रस्सी खींच देता हूँ
कश्ती के डाँड़ मेरे हाथ में हैं
तुम मेरा हाथ पकड़ के नाव पे चढ़ती हो
नाव हिलती है - तुम भी हिलती हो
तुम  डर के मुझपे गिरती हो
मै तुम्हे अपने ऊपर गिर जाने देना चाहता हूँ
तुम मेरा कन्धा पकड़ के संभल जाती हो
तुम लटों को सुलझाते हुए नाव पे बैठ जाती हो

नाव धीरे - धीरे चल रही है
नदी धीरे - धीरे बह  रही है
सांझ धीरे - धीरे ढल रही है
कोयल कुहू - कुहू कर रही है
दूर कंही कोइ योगी ध्यानस्थ है
पुरनम हवा अपनी मस्ती में है
तुम नदी के जल को अपनी अंजुरी में ले के
कभी आसमान में तो कभी मुझपे उछाल देती हो
फिर खिलखिला के हंस देती हो
तुम कोइ प्रेम गीत गुनगुना रही हो

एक मछली पानी के ऊपर आती है
तुम पहले तो डर जाती हो
मछली बुलुप से फिर पानी में चली जाती है
तुम चांदी सी मछली देख के बच्चों सा खुश हो जाती हो
तुम्हे छोटी छोटी मछलियां पसंद आईं

मै तुम्हारी खुशी आँखों में कैद कर लेता हूँ

तुम्हारी इक लट गालों से चिपक गयी है
मै उसे अपनी उंगली से हटाने के बहाने गालों को छू लेता हूँ
तुम बनावटी गुस्सा - मौके का फायदा ?
मै हंस देता हूँ
तुम शरमा जाती हो

रात - गहरा चुकी है
कोयल थक के अपनी चोंच डैनो पे रख सो चुकी है
चाँद आसमान की परिक्रमा कर कर के थक चूका है
योगी समाधि में लीन हो चूका है
रात अपना सांवला आँचल फैला के खुश है

तुम चुप हो
मै चुप हूँ
रात चुप है
तुम कुछ कहना नहीं चाहती
मै कुछ बोलना नहीं चाहता
हमारे बीच मौन बतिया रहा है
कश्ती के चप्पू हुंकारी भर रहे हैं
रात दोनों कान लगाए इस मौन को सुन रही है

मैंने - कश्ती को मोड़ दिया
कश्ती किनारे पहुंच चुकी है

तुम बेतरह थक चुकी हो
मेरे काँधे पे हाथ रख के चल रही हो
तुम्हारी आँखे नींद से बोझल हैं

अब - हम अदम के बाग में बने
रेस्ट रूम में हैं
रेस्ट रूम की दीवारें चंदन की हैं
छत चाँदनी की है
सेज़ कलियों की है

मै तुम्हे सेज़ पे लिटा देता हूँ
तुम जूती पहने पहने ही सो जाती हो
मै तुम्हारी जूती उतार के रख देता हूँ

तुम्हे हौले से रातरानी के फूलों की तकिया लगा देता हूँ
तुम जग जाती हो -  मुस्कुरा देती हो

मै तुम्हारी पलकों को चूम के हौले से दरवाज़ा बंद कर के चला जाता हूँ
तुम्हारी पलकों पे - आंसू हैं

बीते दर्द के हैं
या किसी खुशी के ये तो पता नहीं

पर मै तम्हारी पलकों पे मुस्कुराहट देख के बहतु खुश हूँ

क्यूँ सुन रही हो न ?
मेरा सपना - मेरी सुमी
बोलो न ??
कुछ तो बोलो न //
वरना मै मौन हो जाऊँगा हमेशा - हमेशा के लिए

तुम्हारा

मुकेश इलाहाबादी ---------------------






No comments:

Post a Comment