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Tuesday, 26 September 2017

मुल्तवी कर दें ईश्क़

नदी
की धार में साथ साथ बहते हुए
हम - तुम
न जाने कब दो किनारे हो गए

सुबह की पहली लोकल पकड़ कर
महानगर के इस कोने से उस कोने का सफर
रात देर से वापसी
बढ़ी हुई नदी तैर के पार करने से कंही ज़्यदा थकाऊ
उबाऊ होता है
तुम तो जानती ही हो ये


रविवार का दिन भी कंहा फुरसत देता है
कमरे की सफाई, हफ्ते भर के मैले कपडे सफाई के लिए
मुँह ताकते रहते हैं, छोटी मोटी वस्तुओं की खरीददारी
कुछ जान पहचान के लोगों का आना
छह दिन की थकी देह भी तो मांगती है थोड़ा आराम

वैसे मन तो बहुत करता है तुमसे मिलने को
फिर प्रेम पे गणित हावी हो जाती है

तुमसे मिलने का मतलब,
बस, मेट्रो और रिक्शे का भाड़ा सौ रूपये
फिर मुरमुरे चाय आय कॉफी तो पिएंगे ही
और मुलकात भी किसी पार्क या सस्ते रेस्टोरेंट के कोने की मेज़ में
जंहा सिर्फ हल्की फुल्की बातों के बाद लौट आना
थके हुए अपने दबड़े में

यह सोचते हुए कि अभी माकन मालिक का किराया देना है
घर भी तो कुछ भेजना ही है , ये और बात घर से कोई डिमांड नहीं आयी
और फिर न जाने क्या क्या उमड़ घुमड़ करता रहता है

और इसी उमड़ घुमड़ के बीच बहने लगती है
अवसाद, आलस बेचैनी की नदी जिसमे हांफते हुए तैरने लगता हूँ
और तुम तक पहुंचने की नाकाम कोशिश में डूब जाता हूँ
नींद के भंवर में -
सुबह तक के लिए

लिहाज़ा रोज़ रोज़ डूबा जाए बेचैनियों की नदी में
इससे बेहतर है हम दो किनारे ही बने रहें
बहते रहें वक़्त की धार में

और मुल्तवी कर दें ईश्क़ को बेहतर वक़्त के इंतज़ार में

मुकेश इलाहाबादी ------------------------



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