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Wednesday, 24 January 2018

मेरे शहर में मेरा क़द

मेरे शहर में मेरा क़द
मुझसे
बड़ा नहीं तो
छोटा भी नहीं था
मेरे शहर में मेरा क़द
कम से कम मेरे बराबर तो था

27 साल पहले राजधानी आते ही
मुझे लगा मेरा क़द बहुत कम हो गया है
मैंने घबरा के खुद को देखा - नापा
पाया मै तो उतना ही बड़ा हूँ
जितना बड़ा अपने शहर में था

फिर मैंने गौर से देखा तो पाया
मेरे अगल बगल मुझसे मेरे क़द से काफी बड़े बड़े लोग
भागते दौड़ते चले जा रहे हैं
मुझे लगा शायद भागने - दौड़ने के कारण इन सब का
क़द इतना बढ़ गया है
लिहाज़ा मै भी उनके साथ साथ भागने लगा - दौड़ने लगा
तेज़  और तेज़ - और तेज़
इतनी तेज़ की दौड़ते दौड़ते मै आदमी से घोडा बन गया
और घोडा बन कर और तेज़ तेज़ भागने लगा
जिसकी पीठ पे ढेर सारा असबाब था , पर
यह सच कर खुश होता रहा अब मेरा क़द भी औरों से बड़ा और बड़ा हो जाएगा
भागते - भागते मै घोड़े से पहाड़ में तब्दील हो गया
और मेरी पीठ पे रखा असबाब एक घने जंगल में तब्दील हो गया
पर मै इतने बड़े जंगल को ले कर भी भागता रहा भागता रहा
अपने क़द को बढ़ाता रहा
हालाकी,
भागते भागते मै डायबिटिक हो गया
चिड़चिड़ा हो गया
अपनों से दूर हो गया
मेरा घर तमाम बीमारियों का घर हो गया
मगर फिर भी भागना जारी रहा
ज़ोर ज़ोर और ज़ोर से
यंहा तक कि भागते भागते मुँह से फिचकुर निकलने लगा
मै थक कर गिर गया
और मै हांफते हफ्ते बैठ गया
और  मैंने अपना क़द नापना चाहा कि \
इतना भागने दौड़ने के बाद मेरा क़द कितना बढ़ा

तो मुझे पता लगा दर असल मेरा क़द तो वही का वही है
मेरी अगल बगल भागने वालों के जैसा ही

दर असल बात इतनी थी कि
वे सभी अपना क़द विकास के सूरज की तिरछी रोशनी में
बनती लम्बी परछाई से अपना क़द नापते थे
और मै अपने आप को अपने असली क़द में

(अब मै अपनी जगह खड़े हो कर अपने क़द से ही खुश हूँ )

मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------------------


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