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Friday, 22 September 2023

mai ek andhe kune me hoo

 मै

एक अंधे और,
गहरे कुँए में हूँ
जिसका पानी लगभग सूख चूका है
तली में सिर्फ गंदे और मटमैले पानी का
एक डबरा सा शेष है
जिसमे कुछ कछुएं हैं
जो अपनी पीठ पे पत्थर और लोहे से भी कठोर
खोल ओढ़े हुए हैं
वे अपने लिज़लिज़े हांथ और पैर
मतलब पड़ने के लिए ही निकालते हैं
और फिर अपने खोल में घुस जाते हैं
इन कछुओं के आलावा इस अंधे कुंए में
बिन रीढ़ के और कछुओं के हाथ पैर से भी ज़्यादा
लिजलिजे शरीर वाले केंचुए भी रेंगते रहते हैं
इस अंधे और गगरे कुंए में
अक्सर इस अंधे और गहरे कुंए के
गंदे पानी में कुछ छोटी छोटी मछलियां भी पायी जाती हैं
जो इन केंचुओ को खा जाती हैं
इन केंचुओं को कछुआ भी खा जाता है
मछलियों को दूसरे जानवर खा जाते हैं
इस कुंए की पुरानी जर्जर दीवार की एक खोह में
एक साँप रहता है
एक और खोह में एक नेवला रहता यही
दोनों में पुरानी दुश्मनी है
दोनों एक दुसरे का भोजन खाना चाहते है
और एक दुसरे को ख़त्म करना चाहता हैं
इन सभी विचित्र विचित्र प्राणियों के बीच खुद को
किसी तरह ज़िंदा रखे हुए हूँ
जब बहुत असहाय पाता हूँ खुद को
तो कुंए की जगत की और मुँह उठा कर देखता हूँ
दिन में वहाँ से बहुत छोटा सा आसमान दिखाई देता है
ठीक कुंए की जगत के बराबर
रात में कुछ तारे टिमटिमाते दिख जाते हैं
अक्सर एक चाँद भी झिलमिलाता दिख जाता है
चाँद मुझे बहुत प्यारा लगता है
मै रोज़ देर तक रात का इंतज़ार करता हूँ
पर चाँद मुझे झलक दिखा कर
जाने किधर चला जाता है
और फिर मै देर तक
इस अंधे और गहरे कुँए में
सिसकता रह जाता हूँ
इस अंधे और गहरे कुंएं की
पुरानी और जर्जर जगत को फोड़ कर
एक पीपल उग आया है
बरसों पहले
इस पीपल के तने में गाँव वाले मृतक के नाम का
घड़ा जिसे गाँव वाले घंट कहते हैं बाँध जाते हैं
सुना है इस पीपल में प्रेत भी रहते है
एक पिशाच भी है
गाँव वालों का मानना है, लक्खू साहू
जिसने गरीबों का ब्याज के नाम पे बहुत खून चूसा है
वो मर कर इसी पीपल में पिशाच बन के रहता है
आज भी
हरखू पिशाच के अलावा एक ब्रह्म पिशाच भी रहता है
कई लोगों ने तो इसे देखा है
इस ब्रह्म पिशाच के बारे में भी मान्यता है
बहुत साल पहले इसी गाँव में एक जनकु पंडित रहते थे
जिन्होंने एक गरीब और छोटी जात की विधवा को प्रेम में फंसा कर
गर्भवती कर दिया था और फिर बदमानी के डर से
अपने ही घर में मार के दफ़न कर दिया था
उसी पाप के चलते जनकु पंडित इसी पीपल में कई सौ सालों से
ब्रह्म पिशाच बन लटक रहे हैं
इस पीपल की काली परछाई जब कुंए में पड़ती है तो
मै डर जाता हूँ
इसे पीपल पे एक भयानक चील भी अक्सर उड़ती हुई आती यही
और देर तक बैठी रहती है
भूख लगने पर ये शहर की तरफ जाती है
जहाँ इसे बहुत सारे मुर्दे भोजन के लिए मिल जाते हैं
पेट भरा रहने पर ये देर तक शांत पीपल पे बैठी रहती है
और अपनी पैनी निगाहों से दूर दूर तक देखती रहती है अपने शिकार को
जो कई बार चींखती हुई सी आसमान में उड़ जाती है
फिर से लौट आने के लिए
पर मै चील की आवाज़ से डर जाता हूँ
और बहुत देर तक पीपल के पत्ते सा काँपता हुआ
इस कुँए में अपनी आँखे बंद कर लेता हूँ
तब मुझे
लिजलिये हाथ पैर वाला कछुआ
लिजलिये केंचुएं
साँप नेवला नज़र नहीं आते
और वो पीपल भी नज़र नहीं आता जिसपे
प्रेत पिशाच और
चीखती हुई चील रहती है
मुकेश इलाहाबादी -------------
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