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Wednesday, 7 November 2012

ज़ख्म फूल बन के खिलने लगे हैं


ज़ख्म फूल बन के खिलने लगे हैं
अब रात ख्वाबों में मिलने लगे हैं

तुम्हारे शहर में फिर आ गया हूँ
चराग- ऐ - उम्मीद जलने लगे हैं

तुमने वायदा किया मुलाक़ात का,
कि  एक - एक दिन गिनने लगे है

और तो कुछ नहीं है तोहफे के लिए
फक्त एहसासों के फूल चुनने लगे हैं

सुना है मुकेश तुम्हारी ग़ज़ल सुनके
फिर से हौले हौले मुस्कुराने लगे हैं

मुकेश इलाहाबादी -------------------

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