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Friday, 9 May 2014

वक्त के टंडीले पे एक षोकगीत

वक्त के टंडीले पे
एक षोकगीत
उभरेगा
जिसमें
नाचेगें कंकाल
झूमेंगे प्रेत
बजेंगी हडिडयॉ
झांझ- मजीरों की तरह

दर असल
यह उत्सव आयोजित है
सूरज के बेहद गरम
और चॉद के बेहद
ठंडा हो जाने 
ओजोन परत में छेद हो जाने
मानवता के छीजने
और सभ्यता के
तीसरे विष्व युद्ध के
मुहाने पे पहुच जाने
के उपलक्ष्य में

षायद जब
यह षोकगीत
गाया जा रहा होगा
किसी आदि कवि दवारा
किसी जंगल या पहाड की चोटी पर
या कि समुंदर के रेतीले ढूह पर
नंगे पांव हव्वा के साथ चलते हुये

तम हम जिंदा न हों


05.05.2014

तुम्हारे वक्त में
कविता धानी हुआ करती थी
अब मेरे वक्त में होती है
लाल
नीली
और कभी कभी तो पीली भी

तुम छीट देते थे
थोडे से सरसों के बीज
और पूरी धरती हो जाती थी
धानी धानी
तब तुम गाते थे प्रेम गीत


हालांकि मै भी चाहता हूं
बरसात में मेढ़क की तरह टर्राना
या कि मोर सा नाचना
और भीगते हुए
धान रोपना
पर हत भाग्य
एक विरुआ भी नहीं उगा पाता
इस लाल जमीन पर

लिहाजा

उकेर आया हूं
इन पत्थरों पे
एक चिड़िया
एक  औरत
और धान की बाली

इस उम्मीद पे कि
अगली बार लौटते वक्त तक
मेरी भी कविता हो जायेगी धानी
और मै गाउंगा एक प्रेम गीत


Mukesh Allahaabaadee

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