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Sunday, 26 March 2017

samiksha 'astitv'




जंगलों और गुफाओं से निकल के 'आदम' और 'हौव्वा' ने एक साथ विकास का सफर शुरू किया
और बराबर का योगदान दिया।  जहाँ आदम ने घर के बाहर की ज़िम्मेदारी निभाई वहीं 'हव्वा'
ने घर की ज़िम्मेदारी पूरी शिद्दत से निभाई और वक़्त पड़ने पर आदम के साथ क़दम दर क़दम
हर मोर्चे पे साथ दिया, चाहे वो युध्द का मैदान रहा हो, विज्ञानं की प्रयोगशाला रही हो या फिर
शिक्षा का क्षेत्र रहा हो, पर आदम ने हमेशा  शारीरिक क्षमता और हव्वा की भावुकता का फायदा
उठाते हुए सिर्फ और सिर्फ अपने आप को महिमा मंडित किया और खुद को ही श्रेष्ठ बताता रहा,
आज चाँद सितारों तक पहुचने के बाद और नारी ससक्ती करण  की बात करने के बावज़ूद, जब
कभी हव्वा पीछे पलट के अपने अस्तित्व को टटोलती है तो खुद को नदारत पाती है, और वह एक
बार फिर अनंत पीड़ा में डूब जाती है.

हव्वा,  'नारी ' की इसी पीड़ा को, 'कुसुम पालीवाल' जी ने बहुत खूबी से व्यक्त किया है।

कुसम जी ने अपने अस्तित्व को तलाशती औरत के दुःख के साथ साथ उसके हिस्से में आये थोड़े
से सुखों को, इक्षाओं, को प्रेम को, ख्वाबों को परत - दर- परत न केवल महसूस किया है वरन बड़ी खूबी
और ख़ूबसूरती से अपनी इस काव्य माला में पिरोया भी है.

करीब एक माह पूर्व कुसुम जी ने द्वारा डाक से भेजी गयी इस सप्रेम भेंट प्राप्त हो चुकी थी, जिसे
एक ही सांस में उसी दिन पढ़ लिया था किन्तु कुछ कुछ व्यस्तताओं की वजह से प्रतिक्रिया देने में
विलम्ब हो गया था , दूसरी वजह यह भी थी की कुसुम जी की कविताएं एक बार पढ़ के ही प्रतिक्रिया
देना इन गंभीर और प्रश्न उठती रचनाओं के साथ अन्याय होता, इस लिए इन्हें कई - कई बार पढ़ा.

अपना अस्तित्व ढूंढती नारी जब कुसुम जी के शब्दों में समाज से प्रश्न पूछती है,

दुनिया घूमती है
जिसके, इर्द- गिर्द  में
उसी से उसका
पता पूछती है

तो समाज को एक कटघरे में खड़ा करती है , और सारे के सरे हव्वा चुप हो जाते हैं,

यही हव्वा हमेशा - हमेशा  नहीं तो बहुतों बार ,,

आडम्बरों से बहुत दूर
रोपती रही
हृदय की धरती पर
कुछ रंग बिरंगे
फूलों के समंदर

और खुद बेरंग - बेनूर होती रही

यही हव्वा दूसरों के लिए ख्वाबों का और खुशियों का आसमान बनती रही, खुद बिखरती रही एक बित्ता आसमान की खातिर,
यही पीड़ा कुसुम जी की कविता में  'उड़ान पे पहरा ' बन के उतरती है,' और 'मन का सूनापन' बदस्तूर बरकरार रहता है।
यही नहीं कुसुम जी ने अपने इस काव्य माला में ' नारी के 'मन का सूना पन ' 'नारी मन का झंझावात ' 'जीवन के सत्य' के साथ
व्यक्त किया है, यही नारी बार बार छले जाने और अपने अस्तित्व को मिट जाने की हद तक आने के बावज़ूद ज़िन्दगी से उम्मीद
नहीं हारती और कहती है  ....

'तुमसे आस है मुझको
तुमसे प्यास है मुझको '

आकर्षक कलेवर और प्यारी साज़ सज़्ज़ा के साथ कुसुम जी की कविताओं की यह माला अनेक और नारी मन को खोलती रचनाओं
की 78 फूलों से गुथी ये माला 'अस्तित्व' पाठकों के मन को न केवल देर तक महकाती रहती है, बल्कि बहुत कुछ सोचने को भी
मज़बूर करती है, खाशकर 'आदम' को।
एक दो स्थानों पे बहुत छोटी - छोटी स्पेलिंग को छोड़ दिया जाए तो 'कुसम पालीवाल' जी का यह प्रथम संग्रह काबिले तारीफ है,
अपने पहले ही कविता संग्रह से एक परिपक्व रचनाकार के रूप में पाठकों के समक्ष प्रतुत हुई हैं।

कुसुम जी को उनके प्रथम काव्य संग्रह के लिए ढेरों बधाई, और शुभकामनाएं



मुकेश इलाहाबादी ------


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