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Thursday, 5 January 2012

ग़ज़ल ख्वाब ऐ वस्ल गुनगुनाती रही


ग़ज़ल ख्वाब ऐ वस्ल गुनगुनाती रही
रात तन्हाईयों में हवा सनसनाती रही

दश्त ऐ तीरगी में हम यूँ गुज़रते रहे
धुप छन - छन के मेरे घर आती रही

उजाले मेरी कब्र बेपर्द करते रहे
चांदनी रात भर चादर बिछाती रही

------------------------ मुकेश इलाहाबादी

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