महक।
पिता के कोट
व पीठ से एक आदिम सी
महक उठा करती थी
जो
हम बच्चों को बहूत तीखी
पर अच्छी लगती
मै तो अक्सर
नथूनो व सीने को फुलाकर
ढेर सी महक
अपने अंदर भर लेता
और,
वह महक
धीरे धीरे
सांसों मे घुल कर
मेरे अस्तित्व को
कवच कुण्ड़ल सा घेर लेती
और बचा जाती
न जानी कितनी बारिस व तूफान से
इसी तरह मॉ के
आंचल व गोद मे भी
एक भीनी भीनी
खुशबू रहा करती जो
हर वक्त हमारे चारो और
विरल हो कर
पिता की महक के
साथ घुल मिल कर व
रच बस कर
चारों ओर बसी रहती
यही नही
मुझे तो अपनी
बहन के दुपटटे मे भी एक
प्यारी सी सुगंध उठती सी
दिखायी देती
पर एक दिन
एक अलग सी
अजानी खुशबू
पत्नी की नथूनों से टकरायी
जो अब मेरे अस्तित्व को ही
महका ओर चहका रही है
इन तमाम खुश्बुओं के
साथ घुलमिल के मै भी महामहना चाहता हूं
किसी खुशबू सा
अपने बच्चों के लिये
और उन सब के लिये जिनकी खुशबू से
मै भी खिल रहा हूं किसी खुशबू की तरह
किसी फूल की तरह
मुकेश इलाहाबादी
No comments:
Post a Comment