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Monday, 23 April 2012

मेरे घर दरो दीवार बोलती हैं

बैठे ठाले की तरंग ---------------
मेरे घर दरो दीवार बोलती हैं
रात दिन तन्हाइयां डोलती हैं

गुफ्तगूँ मैंने किसी से की नहीं
राज़ मेरा सिसकियाँ खोलती हैं

आवारगी मेरा शगल रहा नहीं
शहर में आखें कुछ खोजती हैं

पंख फडफडा के भी क्यूँ उड़ा नहीं
परिंदे को कोइ तो वज़ह रोकती है

रोशनी कभी मेरे घर आयी नहीं
मुझको मेरी परछइयां खोजती हैं

मुकेश इलाहाबादी ---------

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