ख़त तुम्हारे गंगा में बहा डाले हैं
ख्वाब हमने सारे जला डाले हैं
सब के सब पेड़ शहर के कट गए
सभी परिंदे गुम्बदों में डेरा डाले हैं
बोलने बतियाने की आज़ादी रहे
इस लिए अपने शर कटा डाले हैं
तुम होते तो और बेहतर गुज़रती
तुम बिनभी दिन अच्छे बिता डाले हैं
उसने अपने दामन के फूल दिखाए
हमने भी अपने ज़ख्म गिना डाले हैं
मुकेश इलाहाबादी ---------------------
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