लकीरें
पानी में खिंचती हैं
न दिखने की तरह
पत्थर पे खिंच जाती हैं
न मिटने की तरह
हांथों में खिच आती हैं
कर्म और भाग्य की तरह
लकीरें
आदमियत को बांट देती हैं
देश व परिवार की
सीमा रेखा की तरह
लकीरें
खिंच कर आईने में
बांट देती हैं अक्श को
न जुड़ने की तरह
क्या बता सकते हैं आप
जहों कोई लकीर न हो
अनंत आकाश की तरह
मुकेश इलाहाबादी
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