कभी धुप में लेटे तो कभी छांह में बैठे
वीरान सी दोपहर में यूँ अनमने बैठे
बालों में कभी बेवज़ह उंगलियाँ फिराई
फिर उनके ही ख्यालों में ऊंघते बैठे
आ रही रोशनी बादलों से छन छन के
ऐसी पीली पीली धुप में गुनगुने बैठ
जानी कब सरक गयी धुप दीवार से
सिमटती परछाईयों को देखते बैठे
जाने क्या चाहती हैं बेचैन निगाहें ?
कभी छज्जे पे खड़े कभी मुंडेर पे बैठे
मुकेश इलाहाबादी ---------------------
वीरान सी दोपहर में यूँ अनमने बैठे
बालों में कभी बेवज़ह उंगलियाँ फिराई
फिर उनके ही ख्यालों में ऊंघते बैठे
आ रही रोशनी बादलों से छन छन के
ऐसी पीली पीली धुप में गुनगुने बैठ
जानी कब सरक गयी धुप दीवार से
सिमटती परछाईयों को देखते बैठे
जाने क्या चाहती हैं बेचैन निगाहें ?
कभी छज्जे पे खड़े कभी मुंडेर पे बैठे
मुकेश इलाहाबादी ---------------------
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