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Monday, 18 February 2013

कभी धुप में लेटे तो कभी छांह में बैठे


कभी धुप में लेटे तो कभी छांह में बैठे
वीरान सी दोपहर में यूँ  अनमने  बैठे

बालों में कभी बेवज़ह उंगलियाँ फिराई
फिर  उनके  ही  ख्यालों में   ऊंघते बैठे

आ रही रोशनी बादलों से छन छन के
ऐसी पीली पीली  धुप में  गुनगुने बैठ

जानी कब सरक गयी धुप दीवार से
सिमटती परछाईयों  को देखते बैठे

जाने क्या चाहती हैं बेचैन  निगाहें ?
कभी छज्जे पे खड़े कभी मुंडेर पे बैठे

मुकेश इलाहाबादी ---------------------



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