परछाइयां दीवार से
नीचे उतरने लगी हैं
पिघल रही थी बर्फ
फिर से जमने लगी है
रुकी रुकी हवाएँ भी
फिर से चलने लगी हैं
तेरे आने की खबर से
उम्मीद बंधने लगी है
बुझते हुए चराग की लौ
फिर से मचलने लगी है
उदास था घर मेरा कि
दीवारें भी हंसने लगी हैं
मुकेश इलाहाबादी -----
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