उम्र गु़जर गयी सलीका न आया,
इज़हारे मुहब्बत का तरीका न आया।
जब जब मिले तब तब कसा ताना,
कसना मुझे एक भी फ़िकरा न आया।
चेहरा आइना, हर बात बता देता,
ग़म को छुपा सकूं तरीका न आया।
ग़लती थी मेरी मै समंदर में कूदा,
बहुत तैरा मग़र किनारा न आया।
फूल सा दिल तोड़ा फिर मसला गया,
काटों सा उंगलियों में चुभना न आया।
कभी क़ाफिया तंग कभी रदीफ़ ज्यादा,
ज़िंदगी एक ग़ज़ल लिखना न आया
मुकेश इलाहाबादी ------------------------
इज़हारे मुहब्बत का तरीका न आया।
जब जब मिले तब तब कसा ताना,
कसना मुझे एक भी फ़िकरा न आया।
चेहरा आइना, हर बात बता देता,
ग़म को छुपा सकूं तरीका न आया।
ग़लती थी मेरी मै समंदर में कूदा,
बहुत तैरा मग़र किनारा न आया।
फूल सा दिल तोड़ा फिर मसला गया,
काटों सा उंगलियों में चुभना न आया।
कभी क़ाफिया तंग कभी रदीफ़ ज्यादा,
ज़िंदगी एक ग़ज़ल लिखना न आया
मुकेश इलाहाबादी ------------------------
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