आँख खोलूँ तो तेरा ही चेहरा दिखाई दे
तेरी सूरत के सिवा कुछ ना दिखाई दे
पत्थर सा था मेरा वजूद बिखर गया,,
हमको अब हर सिम्त सहरा दिखाई दे
घर से निकलूँ भी तो महफूज़ नहीं जाँ
कंही भी आओ जाओ ख़तरा दिखाई दे
बंद खिडकियों से तीरगी नज़र आयेगी
खोलो ज़रा दरीचे तो आसमा दिखाई दे
हर एक चेहरे को पढता हूँ बड़े गौर से
शायद भीड़ मे कोई तो सच्चा दिखाई दे
मुकेश इलाहाबादी ----------------------
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