सूनसान जंगल में गुपचुप बहती रही
वह नदी थी रास्ता खुद चुनती रही
जिसे ज़माना पत्थर दिल कहता रहा
वही संगतराशों की चोट सहती रही
पहले दमियां काँटों के खिली फिर
फूल बन के हर सिम्त महकती रही
परिंदा खुले आसमान में उड़ता रहा
खुद रातो दिन कफस में रहती रही
ज़माने की तीरगी मिटाने की खातिर
जला के जिस्म मोम सा पिघलती रही
मुकेश इलाहाबादी ------------------
वह नदी थी रास्ता खुद चुनती रही
जिसे ज़माना पत्थर दिल कहता रहा
वही संगतराशों की चोट सहती रही
पहले दमियां काँटों के खिली फिर
फूल बन के हर सिम्त महकती रही
परिंदा खुले आसमान में उड़ता रहा
खुद रातो दिन कफस में रहती रही
ज़माने की तीरगी मिटाने की खातिर
जला के जिस्म मोम सा पिघलती रही
मुकेश इलाहाबादी ------------------
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