किताबे ज़िंदगी का इक इक सफ़ा पलटता हूँ
माज़ी के हर लफ्ज़ में सिर्फ तुझे ही पढता हूँ
अंधेरी रात जब नींद किसी करवट आती नहीं
रह - रह के ख़्वाबों में तेरा ही अक्श देखता हूँ
जब कभी दास्ताने ज़िंदगी लिखता हूँ तब - तब
गीत ग़ज़ल और रुबाई में तेरा ही नाम लिखता हूँ
यूँ तो ज़माने में कई दोस्त हैं महफ़िल है रौनके हैं
फिर भी शामो सहर तन्हाइयों में रहना चाहता हूँ
अब तो तमाम उम्र गुज़र गयी सफ़र में ऐ मुकेश
तेरा दर और मेरी मंज़िल कब आयेगी सोचता हूँ
मुकेश इलाहाबादी ------------------------------ ----
माज़ी के हर लफ्ज़ में सिर्फ तुझे ही पढता हूँ
अंधेरी रात जब नींद किसी करवट आती नहीं
रह - रह के ख़्वाबों में तेरा ही अक्श देखता हूँ
जब कभी दास्ताने ज़िंदगी लिखता हूँ तब - तब
गीत ग़ज़ल और रुबाई में तेरा ही नाम लिखता हूँ
यूँ तो ज़माने में कई दोस्त हैं महफ़िल है रौनके हैं
फिर भी शामो सहर तन्हाइयों में रहना चाहता हूँ
अब तो तमाम उम्र गुज़र गयी सफ़र में ऐ मुकेश
तेरा दर और मेरी मंज़िल कब आयेगी सोचता हूँ
मुकेश इलाहाबादी ------------------------------
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