जब कि
नशों मे दौड़ता हो
लहू बन के
व्यभिचार
भ्रष्ट्राचार,
क्रोध
उत्तेजना
उद्दिग्नता
बन गए हों
स्थायी भाव
तब भी
हम उम्मीद रखते हों
खुशहाली की
शुकूनियत की
रूहानियत की
शायद, यह हमारी
मूर्खता है
विवशता है
या की ,
प्रकृति का कोई खेल ?
मुकेश इलाहाबादी -----
नशों मे दौड़ता हो
लहू बन के
व्यभिचार
भ्रष्ट्राचार,
क्रोध
उत्तेजना
उद्दिग्नता
बन गए हों
स्थायी भाव
तब भी
हम उम्मीद रखते हों
खुशहाली की
शुकूनियत की
रूहानियत की
शायद, यह हमारी
मूर्खता है
विवशता है
या की ,
प्रकृति का कोई खेल ?
मुकेश इलाहाबादी -----
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