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Wednesday, 11 June 2014

कभी तो मेरा नगर देख जाओ

कभी तो मेरा नगर देख जाओ
उजड़ा हुआ शहर देख जाओ

बग़ैर शाख, समर पत्तियों का
होता है कैसा शज़र देख जाओ

नदी से निकल कर किस तरह
बहती है इक नहर देख जाओ

ज़र्द पत्तियों सा काँपते चेहरे
चेहरों पे छपा डर देख जाओ

माना तुम बहुत मशरूफ हो
बीमारे दिल को मग़र देख जाओ

मुकेश इलाहाबादी -------------

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