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Friday, 4 July 2014

ये ज़ुल्फ़ें और ये आँखें बोलती हैं




ये ज़ुल्फ़ें और ये आँखें बोलती हैं
तुम्हारी मरमरी बाहें बोलती हैं

जब तुम कुछ नहीं बोलती हो
तब तुम्हारी अदाएं बोलती हैं

जब कभी साँझ देर से लौटूं
इंतज़ार में निगाहें बोलती हैं

तुम ऐसा गुलशन हो जिसकी 
फूल और फिज़ाएँ बोलती हैं

तुम्हारे घर में रहने भर सेही
घर की दरो दीवारें बोलती हैं  

मुकेश इलाहाबादी ------------

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