ऑखें दो से चार होना चाहती हैं
बातें कुछ खाश करना चाहती हैं
बातें कुछ खाश करना चाहती हैं
बदलियां नीर से भर चुकीं, अब
कहीं न कहीं बरसना चाहती हैं
कहीं न कहीं बरसना चाहती हैं
देखो हो गया है मौसम सुहाना
दिले कलियॉ खिलना चाहती हैं
मेरे प्यार व जज्बातों की बुलबुल
तुम्हारे संग चहकना चाहती है
छोडो, गिले शिकवे चले आओ
बहारें तुमसे मिलना चाहती हैं
मुकेश इलाहाबादी -------------
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