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Wednesday, 3 June 2015

ऑखें दो से चार होना चाहती हैं

ऑखें दो से चार होना चाहती हैं
बातें कुछ खाश करना चाहती हैं

बदलियां नीर से भर चुकीं, अब
कहीं न कहीं बरसना चाहती हैं

देखो हो गया है मौसम सुहाना
दिले कलियॉ खिलना चाहती हैं


मेरे प्यार व जज्बातों की बुलबुल
तुम्हारे संग चहकना चाहती है


छोडो, गिले शिकवे चले आओ
बहारें तुमसे मिलना चाहती हैं


मुकेश इलाहाबादी -------------

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