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Saturday, 7 May 2016

बेशक़, तुम चाँद हो



बेशक़,
तुम चाँद हो
पर, मैं
बादल  नहीं
जो उड़ कर
लपेट ले तुमको
अपनी बाहों में

ना ही,
मैं नीले पानी का
पोखरा या झील हूँ
जिसके साफ़ और निष्पंद जल में
तुम रात उतर आओ
गलबहियाँ करो
और सुबह फिर टंग जाओ
आसमान में

और मेरे हाथ भी
इतने लम्बे नहीं हैं
जिन्हे बढ़ा कर
तुम्हे अपनी हथेली में छुपा लूँ
हमेशा हमेशा के लिए


इसलिए
मैंने खुद को अपने इरादों
और इक्षाओं को
गाड़ आया हूँ
इस जहाँन  की खुरदुरी ज़मीन में
इस उम्मीद पे
शायद किसी दिन
उसी जगह एक फूल खिलेगा
और उसकी भीनी भीनी खुशबू
के संग मैँ उड़ कर
बादलों संग घुल मिल जाऊंगा
और फिर तुम्हे अपनी बाँहों में ले लूँगा

(लिहाज़ा मेरी प्यारी सुमी
इस फूल के खिलने तक तुम
चाँद बन यूँ ही आसमान में खिले रहना)


मुकेश इलाहाबादी ---






   

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