"सुनो
सुन रहे हो ना ,
ख्वाहिशें कब मार दी तुमने मन में ,
जानते हो ना ,
मै भी तुम्हारी ही ख्वाहिश हूँ
हूँ ना
कहो...........
जानती हूँ...मै.....हूँ
अमरबेल सी ,तुमसे ही लिपटी
तुमसे ही जन्मी
तुमसे ही उपजी
जानते हो ये अमर बेल की फितरत होती है
आश्रित होती है
जैसे मै तुम पर.........समर्पित
ये समर्पण देखा होता तो यूँ ना मारते ख्वाहिशों को ,मगर नहीँ देखा तुमने ,
मेरा तुमसे जुड़ा होना ,
जी चाहता है तुम्हारे सीने पर हाथ रख दूँ ,
जगा दूँ मुरझाई ख्वाहिशें ,
उदास होंठों पे अपनी हँसी रख दूँ ,
मुझे तलाशती आँखो में ,
मेरा अक्स भर दूँ ,
तुम्हारी पीठ से टिक कर खो जाऊँ तुम्हारे ,
शब्दों के संसार में ,
मगर नहीँ हो सकता ऐसा ,
तुम भी जानते हो ,मै भी ,
क्योंकि...........मै नहीँ हूँ
नहीँ हूँ
बिल्कुल नहीँ ,
मै नहीँ तुम्हारी ,
"सुमि "
अलविदा
सुनो ,
तुम सुन रहे हो ना ?
ये सहरा की रेत कब भर ली तुमने अपने अंदर ,जानती हूँ ,
वजूद तुम्हारा रेत सा ही तो है ,देखी है रेत की फितरत ,मुट्ठीभर उठाओ ,एक एक कण अलग ,
तुम भी ऐसे ही हो ,सब में रह कर सब से अलग ,रेत जैसे ,कोई सिमट नहीँ सका तुम में !!कोई लिपट नहीँ सका ,कोई मन से भी ना लगा !!!
मगर इस रेगिस्तान में तो होती है "मृगतृष्णा "
"मृगमरीचिका "जो प्यास का अहसास होने पर दिखाई देती है ,बस यही वो सहारा होता है जो सहरा में तलाश को जन्म देता है !!
तुम्हारी वही तलाश हूँ मै ,,
जी चाहता है "वन कुसुम "बन खिल जाऊँ तुम्हारे होंठों पर ,
पलकों पर इश्क के सावन बन बरस जाऊँ ,
ये तपता सहरा भिगो दूँ ,
रेजा रेजा उतार लूँ अपने अंदर ,
बिखरे हुये तुम रेत की तरह ,
बाँध दूँ गीली मिट्टी सा !!
ढाल दूँ उस मूरत में जिस से इश्क है मुझे ,
मगर क्या करूँ
ये मृगतृष्णा और तुम और मै मिल न सके ,
क्योंकि ,
नहीँ हूँ
मै..........हाँ
नहीँ हूँ
मै.....तुम्हारी
सुमि
"अलविदा "
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