नदी,
बहना चाहती है
अपने साहिल की बाँहों में
कभी
निष्पन्द
कभी हौले - हौले
तो, कभी तेज़ धार से
कभी तो, लाड में आकर
उछल कर
देर तक,
अपनी फेनिल ज़ुल्फ़ों को
साहिल के सीने पे
गिरा कर
फिर से बहना चाहती है
शांत और निष्पंद
बहुत दूर तक
और देर तक
देखते हुए
दिन के नीले
रात के सांवले आकाश को
चाँद और सितारों के साथ
मुकेश इलाहाबादी ------------
बहना चाहती है
अपने साहिल की बाँहों में
कभी
निष्पन्द
कभी हौले - हौले
तो, कभी तेज़ धार से
कभी तो, लाड में आकर
उछल कर
देर तक,
अपनी फेनिल ज़ुल्फ़ों को
साहिल के सीने पे
गिरा कर
फिर से बहना चाहती है
शांत और निष्पंद
बहुत दूर तक
और देर तक
देखते हुए
दिन के नीले
रात के सांवले आकाश को
चाँद और सितारों के साथ
मुकेश इलाहाबादी ------------
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