सुमी,
तुम्हारी बातों में वो गर्मी नहीं दिखाई देती, वो नरमी नहीं दिखाई देती , वक़्त की सर्द रातों ने सारी की सारी आग राख में तब्दील कर दी?
चलो कोइ बात नहीं।गर फिर कभी तुम्हे दोस्ती की आँच की ज़रा भी दरकार होगी, तो बस इस भूले हुए रिश्ते को थोड़ा कुरेद भर देना, मै
तुम्हे मौजूद मिलूँगा राख में क़ैद चिंगारी सा, तुम्हारे आँचल की हवा से फिर सुलगने को बेताब मिलूंगा।
देखो तो ! या हवा भी कितनी पागल है - कभी चलती है तो इतनी तेज़ इतनी तेज़ की सब कुछ उड़ा ले जाने को बेताब रहती है - चाहे वो
घर हो झोपड़ा हो महल हो किसी की यादें हो असबाब हों , और कभी तो इतनी मद्धम मद्धम चलती हैं जसकी खुशबू से इंसान मदहोश हो जाता है
किसी की बाँहों में खो जाने को जी चाहता है - यही हवा जब बरसात की बूंदो के साथ घुल मिल के जिस्म से टकराती है तो अजब से रूहानी
ठंडक से जी महक महक जाता है - मगर आज गर्मी के इस मैसम में हवा जाने कहाँ गायब हो गयी है ? शायद अपने माशूक तूफ़ान से मिलने
गयी हो - या हो सकता है अपने पीहर गयी हो - या हो सकता है कंही तफरीह में निकली हो - कुछ देर बाद आये। हूँ अच्छा याद आया तुम कब
आओगे दोस्त ??
तुम तो कुछ बोलती ही नहीं हो - इत्ती चुप्पी अच्छी नहीं लगती, चुप्पी की तासीर बर्फ सी ठंडी होती है, (गर मुहब्बत की रूहानियत नहीं है ये चुप्पी तो ? सुलगते हुए शोलों को राख कर देती हैं - लिहाज़ा रिश्तो की आंच बचाए रखने के लिए बोलते बतियाते रहना बहुत ज़रूरी होता है। वैसे मै तुम्हरी चुप्पी से भी बतिया
लेता हूँ चुपके चुपके - क्यूँ की
सुन्ना चाहो तो बहुत राज़ खोलती हैं
चुप्पियाँ अक्सर बहुत कुछ बोलती हैं -
देखा !!! तुम मेरी बातों से मुस्कुरा दी ना, देखो हवा भी चलने लगी - ठुनक - ठुनक - अब इस मै सो जाऊँगा- क्यूँ कि तुम्हारी यादों की हवा मुझे लोरी
जो सूना रही है।
बाय - गुड़ बाय
मुकेश इलाहाबादी ----------------
तुम्हारी बातों में वो गर्मी नहीं दिखाई देती, वो नरमी नहीं दिखाई देती , वक़्त की सर्द रातों ने सारी की सारी आग राख में तब्दील कर दी?
चलो कोइ बात नहीं।गर फिर कभी तुम्हे दोस्ती की आँच की ज़रा भी दरकार होगी, तो बस इस भूले हुए रिश्ते को थोड़ा कुरेद भर देना, मै
तुम्हे मौजूद मिलूँगा राख में क़ैद चिंगारी सा, तुम्हारे आँचल की हवा से फिर सुलगने को बेताब मिलूंगा।
देखो तो ! या हवा भी कितनी पागल है - कभी चलती है तो इतनी तेज़ इतनी तेज़ की सब कुछ उड़ा ले जाने को बेताब रहती है - चाहे वो
घर हो झोपड़ा हो महल हो किसी की यादें हो असबाब हों , और कभी तो इतनी मद्धम मद्धम चलती हैं जसकी खुशबू से इंसान मदहोश हो जाता है
किसी की बाँहों में खो जाने को जी चाहता है - यही हवा जब बरसात की बूंदो के साथ घुल मिल के जिस्म से टकराती है तो अजब से रूहानी
ठंडक से जी महक महक जाता है - मगर आज गर्मी के इस मैसम में हवा जाने कहाँ गायब हो गयी है ? शायद अपने माशूक तूफ़ान से मिलने
गयी हो - या हो सकता है अपने पीहर गयी हो - या हो सकता है कंही तफरीह में निकली हो - कुछ देर बाद आये। हूँ अच्छा याद आया तुम कब
आओगे दोस्त ??
तुम तो कुछ बोलती ही नहीं हो - इत्ती चुप्पी अच्छी नहीं लगती, चुप्पी की तासीर बर्फ सी ठंडी होती है, (गर मुहब्बत की रूहानियत नहीं है ये चुप्पी तो ? सुलगते हुए शोलों को राख कर देती हैं - लिहाज़ा रिश्तो की आंच बचाए रखने के लिए बोलते बतियाते रहना बहुत ज़रूरी होता है। वैसे मै तुम्हरी चुप्पी से भी बतिया
लेता हूँ चुपके चुपके - क्यूँ की
सुन्ना चाहो तो बहुत राज़ खोलती हैं
चुप्पियाँ अक्सर बहुत कुछ बोलती हैं -
देखा !!! तुम मेरी बातों से मुस्कुरा दी ना, देखो हवा भी चलने लगी - ठुनक - ठुनक - अब इस मै सो जाऊँगा- क्यूँ कि तुम्हारी यादों की हवा मुझे लोरी
जो सूना रही है।
बाय - गुड़ बाय
मुकेश इलाहाबादी ----------------
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