ज़मी पे पारे सा बिखर गया हूँ
किसी के हाथों से गिर गया हूँ
शाख से टूटा हुआ पत्ता हूँ मै
जिधर हवा चली उधर गया हूँ
वो तो तेरी सोहबत ही है जो मै
थोड़ा बहुत सही सुधर गया हूँ
कल रात फिर मैंने आवारगी की
शुबो हुई मुकेश तो घर गया हूँ
ऊंचाई मुझे मगरूर न कर दे
थोड़ी सी सीढ़ियाँ उतर गया हूँ
मुकेश इलाहाबादी -----------
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