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Thursday, 15 June 2017

ज़मी पे पारे सा बिखर गया हूँ

ज़मी पे पारे सा बिखर गया हूँ
किसी के हाथों से गिर गया हूँ

शाख से टूटा हुआ पत्ता हूँ मै
जिधर हवा चली उधर गया हूँ

वो तो तेरी सोहबत ही है जो मै
थोड़ा बहुत सही सुधर गया हूँ

कल रात फिर मैंने आवारगी की
शुबो हुई मुकेश तो घर गया हूँ

ऊंचाई मुझे मगरूर न कर दे
थोड़ी सी सीढ़ियाँ उतर गया हूँ

मुकेश इलाहाबादी -----------

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