काश,
मै एक पेड़ होता
और तुम होती
गिलहरी
जो अपनी बटन सी
चमकती आँखों से
इधर - उधर देखती
ऊपर चढ़ती और कभी उतरती
तुम्हे देखता
चुक -चुक करते हुए हरी पत्तियों को
अपने मुहे में दबाये हुए फुदकते हुए
और फिर ज़रा सी आवाज़ या
आहट से भाग के मेरे तने की खोह में छुप जाना
जैसे, तुम दुपुक जाती थी
मेरी बाँहों में,
उन दिनों जब हम तुम दोनों थे
एक दूजे के गहन प्रेम में
(हलाकि मै तो आज भी हूँ
तुम्हारे प्रेम में, तुम्हारा पता नहीं )
ओ ! मेरी सुमी क्या ऐसा हो सकता है किसी दिन ?
कि तुम बन जाओ गिलहरी
और मै बन जाऊँ पेड़
मुकेश इलाहाबादी ----------------
मै एक पेड़ होता
और तुम होती
गिलहरी
जो अपनी बटन सी
चमकती आँखों से
इधर - उधर देखती
ऊपर चढ़ती और कभी उतरती
तुम्हे देखता
चुक -चुक करते हुए हरी पत्तियों को
अपने मुहे में दबाये हुए फुदकते हुए
और फिर ज़रा सी आवाज़ या
आहट से भाग के मेरे तने की खोह में छुप जाना
जैसे, तुम दुपुक जाती थी
मेरी बाँहों में,
उन दिनों जब हम तुम दोनों थे
एक दूजे के गहन प्रेम में
(हलाकि मै तो आज भी हूँ
तुम्हारे प्रेम में, तुम्हारा पता नहीं )
ओ ! मेरी सुमी क्या ऐसा हो सकता है किसी दिन ?
कि तुम बन जाओ गिलहरी
और मै बन जाऊँ पेड़
मुकेश इलाहाबादी ----------------
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