सोचता हूँ
किसी गुलाबी जाड़े की
गुनगुनी सुबह
जब तुम सो रही हो
(करवट - मुड़े हुए घुटनो के बीच दोनो हथेली
छुपाये हुए )
अस्त - व्यस्त लिहाफ में
अध् खुली
ठीक तभी
तुम्हारी बॉलकनी की
खड़की को लाँघ उतर आऊं
सुबह की नर्म धूप सा,
तुम्हारे बिस्तर पे
और लिपट जाऊँ तुमसे
गर्म लिहाफ़ सा
मुकेश इलाहाबादी ----------------
किसी गुलाबी जाड़े की
गुनगुनी सुबह
जब तुम सो रही हो
(करवट - मुड़े हुए घुटनो के बीच दोनो हथेली
छुपाये हुए )
अस्त - व्यस्त लिहाफ में
अध् खुली
ठीक तभी
तुम्हारी बॉलकनी की
खड़की को लाँघ उतर आऊं
सुबह की नर्म धूप सा,
तुम्हारे बिस्तर पे
और लिपट जाऊँ तुमसे
गर्म लिहाफ़ सा
मुकेश इलाहाबादी ----------------
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