तपता हुआ लगे झुलसता हुआ लगे
जाने क्यूँ सारा शह्र जलता हुआ लगे
जैसे आफ़ताब ज़मी पे उतर आया हो
फूल भी पत्थर भी पिघलता हुआ लगे
किसी न किसी दर्द के मारे हैं सभी
छोटा हो बड़ा हो बिलखता हुआ लगे
सभी के पांवों में लगे हैं पहिये मगर
फिर भी हर शख्श घिसटता हुआ लगे
बहुत चाहा था संवर लूँ खुद को मुकेश
वज़ूद का ज़र्रा ज़र्रा बिखरता हुआ लगे
मुकेश इलाहाबादी ---------------------
जाने क्यूँ सारा शह्र जलता हुआ लगे
जैसे आफ़ताब ज़मी पे उतर आया हो
फूल भी पत्थर भी पिघलता हुआ लगे
किसी न किसी दर्द के मारे हैं सभी
छोटा हो बड़ा हो बिलखता हुआ लगे
सभी के पांवों में लगे हैं पहिये मगर
फिर भी हर शख्श घिसटता हुआ लगे
बहुत चाहा था संवर लूँ खुद को मुकेश
वज़ूद का ज़र्रा ज़र्रा बिखरता हुआ लगे
मुकेश इलाहाबादी ---------------------
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