ज़मी पे दरी चादर बिछा के बैठें
आ चार यार पुराने बुला के बैठें
काजू, नमकीन और थोड़े वैफर्स
साथ में कोल्ड ड्रिंक मंगा के बैठें
जब जमी हो महफ़िल दोस्तों की
फिर अपना मुँह क्यूँ फुला के बैठें
रोज़ रोज़ ऐसे मौके कंहा मिले है
मस्तियों के जाम छलका के बैठें
बहुत किस्से हैं सुनने सुनाने को
कुछ देर, दर्दो ग़म भुला के बैठें
मुकेश इलाहाबादी ---------------
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