कि बादलों को झूम झूम कर बरसता हुआ देखूँ
तुझे गीले गेसुओं को छत पे झटकता हुआ देखूँ
सफर में ठाँव जो तेरी ज़ुल्फ़ों का मिले तो रुकूँ
वरना दर ब दर मै ख़ुद को भटकता हुआ देखूं
तेरे चेहरे पे उदासी हरगिज़ अच्छी नही लगती
दिले तमन्ना है तुझे हर दम हँसता हुआ देखूँ
मेरे सीने में बर्फ की सिल्ली सी जमी रहती है
तू आ के छू ले तो ख़ुद को पिघलता हुआ देखूँ
तेरे फूल से जिस्म से हवाओं सा लिपट जाऊँ
फिर तेरी साँसों में अपने को महकता हुआ देखूँ
मुकेश इलाहाबादी,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
तुझे गीले गेसुओं को छत पे झटकता हुआ देखूँ
सफर में ठाँव जो तेरी ज़ुल्फ़ों का मिले तो रुकूँ
वरना दर ब दर मै ख़ुद को भटकता हुआ देखूं
तेरे चेहरे पे उदासी हरगिज़ अच्छी नही लगती
दिले तमन्ना है तुझे हर दम हँसता हुआ देखूँ
मेरे सीने में बर्फ की सिल्ली सी जमी रहती है
तू आ के छू ले तो ख़ुद को पिघलता हुआ देखूँ
तेरे फूल से जिस्म से हवाओं सा लिपट जाऊँ
फिर तेरी साँसों में अपने को महकता हुआ देखूँ
मुकेश इलाहाबादी,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
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