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Tuesday, 15 January 2019

कि बादलों को झूम झूम कर बरसता हुआ देखूँ

कि बादलों को झूम झूम कर बरसता हुआ देखूँ
तुझे गीले गेसुओं को छत पे झटकता हुआ देखूँ

सफर में ठाँव जो तेरी ज़ुल्फ़ों का मिले तो रुकूँ
वरना दर ब दर मै ख़ुद को भटकता हुआ देखूं

तेरे चेहरे पे उदासी हरगिज़ अच्छी नही लगती
दिले तमन्ना है तुझे हर दम हँसता हुआ देखूँ

मेरे सीने में बर्फ की सिल्ली सी जमी रहती है
तू आ के छू ले तो ख़ुद को पिघलता हुआ देखूँ

तेरे फूल से जिस्म  से हवाओं सा लिपट जाऊँ
फिर तेरी साँसों में अपने को महकता हुआ देखूँ

मुकेश इलाहाबादी,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

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