सफर में तन्हा भी चल सकता हूँ
बगैर साथी के भी रह सकता हूँ
उम्र भर ज़ख्म ही तो खाता रहा
कुछ और दर्द भी सह सकता हूँ
कोई सुने मुझे तो अच्छा वरना
परिंदो से भी बातें कर सकता हूँ
गर मुस्कुराने का वायदा कर तू
तेरे लिए जोकर भी बन सकता हूँ
तू जो बज़्म से न उठ के जाए तो
शब् भर यूँ ही नज़्म पढ़ सकता हूँ
मुकेश इलाहाबादी -------------
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