बैठे ठाले की तरंग ---------
भीगे हुए मौसम में ,
सीली हुई यादों से
धुंआ सा उठता है
धुंए में इक अक्श उभरता है
फिर मेरा वजूद भी धीरे धीरे,
धुआंता जाता है,
कुछ देर बाद
'मै' भी इस धुंए के साथ
गड्ड मड्ड होकर
आसमा में जाने कहाँ विलीन हो जाता हूँ
----------------------- मुकेश इलाहाबादी
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