उसी अदा से ज़ुल्फ़ सजाते हुए
बैठे ठाले की तरंग ---------
उसी अदा से ज़ुल्फ़ सजाते हुए
आज भी दिखे बाज़ार जाते हुए
हम खुस हो गए उन्हें देखकर,पै
वे चल दिए,फिर दिल जलाते हुए
इक बार हमने किया था सलाम
मुह बिचका दिया आँख मटकाते हुए
आज भी हैं हम, उसी दर पे काबिज़
कभी तो दिखेंगे, पलट के आते हुए
आ चलो, फिर चलें, उसी मैखाने में
फिर फिर वही ग़ज़ल गुनगुनाते हुए
मुकेश इलाहाबादी ----------------
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