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Tuesday, 20 March 2012

ख़ुद को ख़ुद से जलता हुआ देखूं

बैठे ठाले की तरंग ---------------
 
ख़ुद को ख़ुद से जलता हुआ देखूं
अपने ही जिस्म को बर्फ सा गलता हुआ देखूं
अजाब आदतों का शिकार हो गया हूँ
ख़ुद को कभी रोता हुआ, कभी हंसता हुआ देखूं
बात मै किसी ग़ैर की नहीं कर रहा
मुहब्बत के नाम पे ख़ुद को ही मरता हुआ देखूं
मीलों तलक सहरा,मंजिल की राह में
तपती हुई रेत पे ख़ुद को चलता हुआ देखूं
यूँ तो मेरे मकां में दरीचे ही दरीचे ही हैं
फिर भी अपनी सांस को घुटता हुआ देखूं

मुकेश इलाहाबादी ----------------------------

1 comment:

  1. मुहब्बत के नाम पे ख़ुद को ही मरता हुआ देखूं I like this one

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