दोस्त,
मुहब्बत बेशर्त होती है। मुहब्बत जब होती है तो बस होती है। जैसे धूप खिली हो, सूरज चमक रहा हो और अचानक बदरिया तन जाये, ओर सूरज ढ़क जाय। बस, ऐसे ही मोहब्बत होती है। बदरिया सी। बदरिया जब बरसती है तो खूब बरसती है।
बदरिया कभी नही देखती कब बरसना है, कहां बरसना है, कितना बरसना है। कोई पैरामीटर लेकर नही बरसती, बस बरसती है ओर बरस कर खाली हो जाती है, ओर फ़िजां ताजा ताजा हो जाती है। धुली धुली।
बस ऐसे ही मुहब्बत कब हो जाये कहां हो जाये किससे हो जाय पता नही। सच मुहब्बत को कुछ पता नही होता। वह तो बस होती है और हो जाती है। बिना शर्त - बिना बात।
ओर सुना है जब मुहब्बत होती है, रोंवा रोंवा पुलक से भर जाता है। मन हुलस हुलस जाता है । कदम बहक बहक जाते हैं। ऑखें नशे में डूबी डूबी रहती हैं।
मुहब्बत को इससे कोई लेना देना नही रहता। वह जिसपे बरस रही है। वह काला है, गोरा है, बड़ा है, छोटा है उंच है नीच है बस उसे तो होना होता है और अपने महबूब पे प्रेम उडेलना है, उसे दुलराना है, बतियाना है, लडियाना है, लड़ना है, झगड़ना है बस उसी के लिये पलके पांवडे़ बिछाये रखन होता है।
अगर ऐसा है तो जान लो मुहब्बत हो गयी है।
अगर नही तो जानो वह मुहब्बत नही दगाबाजी है, समझौता है , सौदा है चाहे वह अपने आप से हो चाहे महबूब से हो और चाहे जमाने से हो
बस।
मुकेश इलाहाबादी
किसी दिन लिखे दो शे'र अर्ज है।
चराग़ की रोशनी में देखता हूं
खु़द से बड़ी परछाईयां देखता हूं।
आईने में खुद को देखकर
है ये शख्श कौन ? सोचता हूं।
मुहब्बत बेशर्त होती है। मुहब्बत जब होती है तो बस होती है। जैसे धूप खिली हो, सूरज चमक रहा हो और अचानक बदरिया तन जाये, ओर सूरज ढ़क जाय। बस, ऐसे ही मोहब्बत होती है। बदरिया सी। बदरिया जब बरसती है तो खूब बरसती है।
बदरिया कभी नही देखती कब बरसना है, कहां बरसना है, कितना बरसना है। कोई पैरामीटर लेकर नही बरसती, बस बरसती है ओर बरस कर खाली हो जाती है, ओर फ़िजां ताजा ताजा हो जाती है। धुली धुली।
बस ऐसे ही मुहब्बत कब हो जाये कहां हो जाये किससे हो जाय पता नही। सच मुहब्बत को कुछ पता नही होता। वह तो बस होती है और हो जाती है। बिना शर्त - बिना बात।
ओर सुना है जब मुहब्बत होती है, रोंवा रोंवा पुलक से भर जाता है। मन हुलस हुलस जाता है । कदम बहक बहक जाते हैं। ऑखें नशे में डूबी डूबी रहती हैं।
मुहब्बत को इससे कोई लेना देना नही रहता। वह जिसपे बरस रही है। वह काला है, गोरा है, बड़ा है, छोटा है उंच है नीच है बस उसे तो होना होता है और अपने महबूब पे प्रेम उडेलना है, उसे दुलराना है, बतियाना है, लडियाना है, लड़ना है, झगड़ना है बस उसी के लिये पलके पांवडे़ बिछाये रखन होता है।
अगर ऐसा है तो जान लो मुहब्बत हो गयी है।
अगर नही तो जानो वह मुहब्बत नही दगाबाजी है, समझौता है , सौदा है चाहे वह अपने आप से हो चाहे महबूब से हो और चाहे जमाने से हो
बस।
मुकेश इलाहाबादी
किसी दिन लिखे दो शे'र अर्ज है।
चराग़ की रोशनी में देखता हूं
खु़द से बड़ी परछाईयां देखता हूं।
आईने में खुद को देखकर
है ये शख्श कौन ? सोचता हूं।
No comments:
Post a Comment