बैठे ठाले की तरंग ------------
न कभी खुद को बढ़ा के देखा
न कभी खुद को घटा के देखा
जितनी रही मेरी चादर, अपने
बदन को उसमे सिमटा के देखा
हर एक की कुछ मजबूरियां थी
हमने सभी को आजमा के देखा
हकीकत की ज़मीं तो छोटी थी
ख्वाब कोही हमने बढ़ा के देखा
चाँद तो रोज़ ब रोज़ बढ़ता है
उसे भी हमने घटता हुआ देखा
सूरज भी जो दिन भर तपता है
दिन ढले उसे छुपता हुआ देखा
कल तलक जो इंसान ज़िंदा थे
मुकेश उसे आज मरता हुआ देखा
मुकेश इलाहाबादी ----------------
न कभी खुद को बढ़ा के देखा
न कभी खुद को घटा के देखा
जितनी रही मेरी चादर, अपने
बदन को उसमे सिमटा के देखा
हर एक की कुछ मजबूरियां थी
हमने सभी को आजमा के देखा
हकीकत की ज़मीं तो छोटी थी
ख्वाब कोही हमने बढ़ा के देखा
चाँद तो रोज़ ब रोज़ बढ़ता है
उसे भी हमने घटता हुआ देखा
सूरज भी जो दिन भर तपता है
दिन ढले उसे छुपता हुआ देखा
कल तलक जो इंसान ज़िंदा थे
मुकेश उसे आज मरता हुआ देखा
मुकेश इलाहाबादी ----------------
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