पहाड़ और स्नो व्हाइट
आफिस।
मेज-पूरब की तरफ़। खिड़की- पूरब की तरफ़। खिड़की के पार पहाड़ - पूरब की तरफ़।
आज भी -
खिड़की खुली है। दिवाकर अपने सातों रंग समेट मेज पे पसरा है। पहाड़ खिला
है। हरे,
भूरे,
मटमैले रंगों में अपनी पूरी भव्यता के साथ। रोज़ सा। मानो सातों रंग छिटक
दिये गये हों एक एक कर। इंद्रधनुष आसमान से उतर पहाड़ पे पसर गया हो।
पहाड़ चुप
तो आज भी है। पर है मन ही मन खिला-खिला। आज मौन मैंने ही तोड़ा
’दोस्त
- हर रोज़। शुरू होती है,
अन्तहीन यात्रा। सुबह देखे,
सपनों के साथ। उम्मीदों के साथ,
सपने सच होने के। किन्तु पल-पल वक़्त गुज़रता है। रोशनी बढ़ती जाती है।
छिन-छिन सपने धुँधलाते जाते हैं। अँधेरा बढ़ता जाता है। सूरज सिर पे आता
है। अँधेरा पूरी तरह फैल जाता है। सपने शून्य में खो जाते हैं। आँखों में
सपने नहीं अँधेरा होता है। वक़्त अपनी रफ़तार से बढ़ता जाता है। अंदर का
अँधेरा बाहर आने लगता है। सूरज अपनी माँद में छिपता जाता है। अँधेरा अंदर व
बाहर दोनों जगह घिरता जाता है। दिन में टूटे सपने फिर जुड़ने लगते हैं। नये
सपने बुनने के लिये। आज तुम्हारी आँखों में भी देख रहा हूँ - एक हँसी।
चेहरे पे मुस्कुराहट। क्या तुम्हारा कोई सपना सच हो गया है। या कोई हसीं
सपना देखा है।”
“दोस्त-
दुनिया एक सपना है। सपने ही दुनिया है। सपने हैं इसीलये दुनिया है। सपने न
होते दुनिया न होती। क्योंकि सपना ही वर्तमान है,
सपना ही भूत है,
सपना ही भविष्य है। सपने,
बनते हैं जिजिविषा जीने की। सपने खत्म,
जीवन खत्म। रही बात मेरी तो जान लो।
पत्थर
सपने नहीं देखते। मैं भी नहीं देखता। हाँ सपने देखने वालों को ज़रूर देखा
है। सपनों को टूटते देखा है। आओ मैं सुनाता हूँ तुम्हें एक कहानी।
एक बुढ़िया
की
जो कभी एक
औरत थी एक लड़की थी
जो
आज भी सपने बुनती है।
उसी
शिद्दत से जिस शिद्दत से,
उसने सपने बुने थे बचपन में जवानी में।
तो सुनो!”
मैंने
अपने कान पहाड़ की शांत चोटियों से लगा दिये। और आँखों को चट्टानों से
चिपका दिया।
दूर
घाटियों से पहाड़ के शब्द उभरने लगे।
“कल्पना
करो ...
यहाँ से
दूर बहुत दूर। सागर किनारे। ख़ूबसूरत जगह गोवा में एक बहोत बड़े रईस की एक
ख़ूबसूरत सी लड़की की। गोरा रंग नाटा कद। सुतवा नाक, साधारण पर बेहद आकर्षित
करने वाली आँखें। कोमल शरीर। चंचल और शोख।
नाम कुछ
भी रख लो। वैसे तो हर लड़की की लगभग एक सी कहानी होती है। खैर मैंने तो
उसका नाम स्नो व्हाइट रखा है। हो सकता है उसका नाम कुछ और हो। पर मुझे यही
नाम उसके लिये सबसे अच्छा और उपयुक्त लगा। इसीलिये मैं उसको स्नोव्हाइट कह
के पहचानता हूँ।
स्नो
व्हाइट एक किशोरी। पतली-दुबली, छोटी काया। कांधे पे लहराते घुँघराले लम्बे
बाल,
बादलों के माफिक। न जाने कब बरस जायें। आँखें उफनते झरने। सागर किनारे
लहरों सी दौड़ती,
उछलती। कभी रेत में औंधे लेट,
गहरी आँखों से देखना दूर तक,
दूर तलक जहाँ ज़मीन व आकाश एकाकार होते है। स्नो व्हाइट उस बिंदु को देखती
रहती,
देखती रहती,
देर तक और देर तक न जाने कब तक। न जाने क्या सोचती फिर उठती और फुदकने लगती
सागर किनारे। घरौंदे बनाती रेत पे। सजाती सँवारती। अभी पूरी तरह खुश भी न
हो पाती अचानाक लहर आती। स्नो व्हाइट भीग जाती। घरौंदा बह जाता। वह उदास
होती। वह खुश होती और फिर उसी शिद्दत से लग जाती घरौंदा बनाने। सूर्य की
किरणें उसके गोरे मुखड़े को रक्ताभ कर देती। श्वेत जलकण गालों को भिगो देते।
कुछ रजकण अलकावलियाँ सवारने के दौरान गालों से चिपक उसकी ख़ूबसूरती को हज़ार
गुणा कर देते। पर वह इन सब से बेखबर सुंदर गुड़िया सी पूरी तन्मयता से लगी
रहती बार-बार रेत घर बनाने में।
बेखबर इस
बात से कि कोई किशोर उसे दूर से देखता रहता है, देख रहा है। अचानक किशोर
स्नो व्हाइट के बगल आ खड़ा होता है।
“क्या
मैं तुम्हारे साथ खेल सकता हूँ स्नो व्हाइट।”
कमल सी
आँखें किशोर की आँखों से मिली। बाँहों से उसने लटों को पीछे धकेला।
“हाँ
हाँ क्यों नहीं जॉन”।
बस दोनों
खेलने लगे साथ-साथ। हँसने लगे एक साथ।
अब दोनों
अक्सर रेत किनारे दिख जाते। दौड़ते। भागते। खेलते। ऊब जाते तो लड़का समुद्र
में छलाँगे लगा दूर तक तैरता निकल जाता। लहरों के साथ वहाँ तक जहाँ धरती व
आकाश मिलते है या मिलते से महसूस होते हैं। लड़की वहीं किनारे रेत में
घरौंदे बनाती।
“इस
तरह क्या देख रहे हो जॉन।”
“कुछ
नहीं स्नो बस देख रहा हूँ तुम कितनी सुंदर हो। बिलकुल परी जैसी।”
“हाँ
मैं परी ही तो हूँ। बिना परों की। पर तुम देखना एक दिन मैं ज़रूर उड़ कर
आसमान में चली जाऊँगी दूर बहुत दूर।”
“कहाँ..
चाँद पे।”
“हाँ
चाँद पे चली जाऊँगी।”
“कोई
बात नहीं मैं भी इन समुद्र की लहरों पे चलता हुआ तुम तक पहुँच जाऊँगा।”
स्नो
हँसती है। चाँदनी छिटक जाती है।
“लहरों
पे चलके तुम मुझतक कैसे पहुँचोगे?”
“पूर्णिमा
को जब ज्वार भाटा आयेगा तो लहरें ऊँची उठ कर मुझको तुम तक पहुँचा देंगी।”
दोनों
हँसते हैं। गड्ड मड्ड होते हैं। लहर और चाँदनी हो जाते हैं।
चाँद शरमा
के मुँह छिपा लेता है।
ताड़
वृक्ष भी लहरों से झूमते हैं।
ख़ामोशी
“जान
देखो सागर कितना सुंदर है।”
“हाँ
सागर है तो सुंदर है।”
“क्यों
क्या सागर में तुम्हें कोई स्रुंदरता नहीं दिखायी पड़ती। इन लहरों में
तुम्हें कोई संगीत नहीं सुनाई पड़ता। इन पेडों में कोई रुहानी खुशबू नहीं
महसूस होती।”
“स्नो
तुम इतनी भावुक क्यों हो। यह सब तो ज़िंदगी के हिस्से हैं। आओ मेरी बाहों
में देखो कितना आनंद है।”
स्नो को
फिर अपने में घेर लेता है। वह भी गोद में छुप जाती है।
लड़की।
सपना। घरौंदा।
सचमुच का
घरौंदा। और ढेर सारी रेत। रेत के किनारे फला मीलों लम्बा समुद्र। समुद्र
में लहरें। लहरों पे फैली चाँदनी। चाँदनी के साथ साथ उड़ते स्नो और जॉन।
दूर तक दूर तक। चाँद तक। सितारों तक सितारों के पार तक।
सपना सच
हुआ। लड़का लोहे के बड़े बड़े जहाज पे चढ़ लहरों पे उड़ते हुए चला गया दूर
बहुत दूर। उससे भी बहुत दूर जहाँ धरती व आकाश मिलते हैं। या मिलते हुए
प्रतीत होते हैं।
लड़की।
रेत। घरौंदा।
इंतज़ार।
मीलों लम्बा इंतज़ार। समुद्र सा लम्बा व अंतहीन। और एक दिन। वह थक कर उड़
चली हवाई जहाज पे। परिचारिका बन। हवाई जहाज जब कभी,
बादलों के पार जाता तो वह अपनी पलकें फाड़-फाड़ बाहर देखती,
शायद जॉन चाँदनी की लहरों पे सवार हो उससे पहले आ उसके लिये घरौंदा बना रहा
हो। पर हर बार उसे निराशा ही मिलती।
उम्मीद
भरी आँखों में अश्रुकण झिलमिला आते।
धीरे-धीरे,
स्नो की आँखों के सपने धुँधलाने लगे। आँसू सूखने लगे। वह फिर से मुस्कुराने
लगी।
उसने यह
सोच तसल्ली कर ली की शाय जॉन उसके लायक ही न रहा हो। या वह ही उसके लायक न
रही हो। या उससे कोई भूल हो गयी हो। कारण जो भी रहा हो पर जॉन वापस नहीं
आया। शायद वापस आने के लिये गया भी नहीं था!
कुछ पल के
लिये मौन।
“इस
तरह स्नो व्हाइट की ज़िंदगी का पहला बौना रस लेकर उड़ गया था।”
पहाड़ ने
लम्बी साँस ली।
मैंने भी।
पहाड़ चुप,
उदास आँखों से अनंत आकाश को देखता। मेरी उत्सुक निगाहें आगे जानने को
व्याकुल। कहने लगीं -
“दोस्त
आगे तो बोलो।”
पहाड़ कुछ
देर सोचता रहा। बोला –
“स्नो
जॉन के बिरह में तपती गलती हँसती तो रहती पर अक्सर
चुप ही रहती। किसी से कुछ न कहती। खोयी-खोयी सी रहती।
फिर भी उन
खोयी-खोयी सी उदास आँखों में न जाने कौन से जादू रहता कि देखने वाला स्नो
को देखता ही रह जाता। पर वह इन सब से बेखबर अपनी ही दुनिया में डूबी रहती।”
फिर एक
दिन ..
स्नो
हमेशा की तरह हवाई परिचारिका
की ड्रेस में सजी धजी। रुई से बादलों के बीच से उड़ रही थी। लोग उसे उड़न
परी बोला करते। कारण वह सभी यात्रियों व सहायकों के काम व फरमाइशों को बड़ी
तत्परता से मुस्कुराते हुए करती रहती। खूबसूरत तो वह थी ही।
एक
राजकुमार की नज़रें उससे मिली। राजकुमार वाकई किसी देश का राजकुमार था।
देखते ही स्नो की खूबसूरती पे मर मिटा। न जाने कब।
औपचारिक
बातें अनौपचारिता में बदल गयी।
स्नो
राजकुमार के महल में रहने लगी।
फूल से
कोमल व रुई से हल्के बादलों को उसने अलविदा कह दिया।
बादल स्नो
से बिछड़ के खुश तो न थे पर स्नो की खुशी में वह खुश थे।
स्नो एक
बार फिर अपने नये घरौंदे में खुश थी।
दिन हँसी
खुशी बीत रहे थे। इन्ही हँसी खुशी के दिनों में ही कब।
घरौंदा
रेत का पिंजड़े में कब बदल गया।
स्नो को
पता ही न लगा।
उड़न परी
के पर न जाने कब कट चुके थे। दुनियादार राजकुमार देश दुनिया के कामों में
व्यस्त रहने लगा। स्नो कभी कुछ कहती तो हँस के कहता,
“स्नो
तुम्हें दुख किस बात का है। तुम्हें जो चाहिये वह सब कुछ मंगा सकती हो किसी
बात की कमी हो तो बोलो हाँ यह ज़रूर है कि एक रानी होने के नाते तुम्हारे
कहीं आने-जाने व बोलने बतियाने में कुछ प्रतिबंध तो रहेंगे ही। और तुम तो
जानती ही हो शासन चलाना इतना आसान नहीं है। इसलिये तुम मेरा हर समय इंतज़ार
न किया करो।”
झील से
आँखें उफना जाती यह सब सुनके।
उड़न परी
को याद आने लगता। सागर की उन्मुक्त लहरें। मीलों लम्बे फैले रेत पे बेलौस
दौड़ना। घरौंदा रेत की ही होता पर बनाती तो वह अपने ही हिसाब से थी।
याद आने
लगती बादलों की। चिड़िया सा परी सा फुदक के उड़ जाना आज इस देश में तो कल उस
देश में। कितना मजा था। कितना आनंद था।
स्नो ने
एक बार फिर अपने कटे पर अलमारी से निकाले। साफ किया पिंजडे का छोड़ उड़
चली। अनंत आकाश में।
बादलों ने
एक बार फिर अपनी प्यारी उड़न परी का दिल खोल का स्वागत किया पर उसके परी के
राजकुमार से अलग होने से कुछ उदास हो गये थे।
इस बार
स्नो बादलों से कहती –
“तुम
लोग क्यों उदास होते हो। घरौंदा तो मेरा टूटा है पर मैं तो उदास नहीं हूँ।”
आँसुओं को
पीते हुए आगे कहती,
“दोस्त
घरौंदे तो होते ही हैं टूटने के लिये। गलती मेरी ही है जौ मैंने घर की जगह
घरौंदो को पसंद करती हूँ।”
यह कह के
खिलखिला के हँस देती।
बादल भी
मुस्कुरा देते। पर अंदर का दर्द दोनों ही महसूसते रहते।”
यह कह
पहाड़ चुप हो गया।
आगे का
वाक्य मैंने ही पूरा किया –
“ओैर
इस तरह स्नो की ज़िंदगी का दूसरा बौना रस लेकर चला गया था।”
पहाड़ की
आँखें मुझे देखती हैं। मेरी आँखें उसकी आँखों को।
लंबा मौन
लंबी साँस
और चंद
शब्द बस कहानी खत्म।
स्नो
घरौंदे बनाती रही।
घरौंदे
टूटे रहे।
बौने
ज़िंदगी में आते रहे।
बौने
ज़िंदगी से जाते रहे।
एक दिन वह
बौनों से ऊब के यहीं मेरे पैरों तले सचमुच का घरौंदा बना रहने लगी है। अब
वह बस उसीको सजाती है। सँवारती है। उसी में खुश रहती है। आज भी उसके घरौंदे
में सात बौनों की प्रस्तर मूर्ती देख सकते हो। ज़मीन में लेटे बेजान।
पर स्नो
तो आज भी रातों को तारों को देखती हैं। बादलों से बतियाती है।
और खुश
है।
पर उसे आज
भी चाँद में जॉन दिखता है।
अब पहाड़
चुप है। मैं भी चुप हूँ।
खिड़की
खुली है। गिलहरी पेड़ की खोह में जा चुकी है। दाना दुनका लेकर।
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