बैठे ठाले की तरंग -------------------
एक दिन
कच्ची धुप का
छोटा चकत्ता
खिल आया
मेरे आँगन मे
तेरे आँगन मे
तुम मुस्कुराईं
अपने आँगन मे
मै हंसा
अपने आँगन मे,
दुसरे दिन
कुछ बड़ा होकर
फिर खिला
धुप का वो
छोटा चकत्ता
मेरे आँगन मे
तेरे आँगन मे
धीरे धीरे बन गयी
आदत - उस चकत्ते की
खिलने की
खिलखिलाने की
कभी मेरे आँगन मे
कभी तेरे आँगन मे
एक दिन तुमने
टांकना चाह उसे अपने आँचल मे
तब छिटक कर
वह चकत्ता
दूर जा लगा दीवार से
और तुम ताकती रह गयी
अपने रीते आँगन को
जब मैंने चाहा भरना बाहों मे
उस छोटे चकत्ते को
इठला कर दूर जा लगा क्षितिज से
और मै देखता रह गया
अपने सूने आँगन को
और -----
आज भी -
हसरत भरी निगाहों से देखता हूँ
मै अपने सूने आँगन को
तुम अपने रीते आँगन को
जब कभी कोई
धुप का छोटा चकत्ता
खिलता है
मेरे आँगन मे
तेरे आँगन मे
या किसी और के आँगन मे
मुकेश इलाहाबादी ------------------
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