ठस और बेजान दिनों के बीच
बैठे ठाले की तरंग -------
ठस
और
बेजान
दिनों के बीच
हम
गुज़र रहे हैं
निष्पंद
किसी पत्थर सा
या कि
खौलते
उबलते
दिनों के बीच
पड़े हैं
बिना गले
बिना पके
और फिर ठन्डे हो जायेंगे
पत्थर की तरह
इन्ही
ठस और बेजान दिनों के बीच
उबलते और खौलते दिनों के बीच
मुकेश इलाहाबादी -----------------
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