तुम्हारे ख़त पढ लेता हूँ
आँखें नम कर लेता हूँ
तेरी यादों के फूल झरते हैं
और चुपके से बिन लेता हूँ
माज़ी के गुलशन में जाकर
ग़म के पत्ते चुन लेता हूँ
ज़ख्म तो कब का भर गया
पै,निशाँ अक्शर देख लेता हूँ
जानता हूँ तुम नहीं आओगी
फिर भी दरवाज़े खोल देता हूँ
मुकेश इलाहाबादी -------------
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