
अपने व्यक्तित्व को समेटे हुए
मेरा 'मै' कितना सुखी और संतुष्ट है
मेरी छोटी सी नौकरी
मेरा छोटा सा बच्चा
मेरी प्यारी सी बीबी
मेरा छोटा सा मकान
किन्तु अक्सर मेरा मै
विस्तार लेने लगता है
और 'मै' कितना असंतुष्ट हो जाता है
मेरा 'मै' मेरे से निकल
मेरे परिवार, मेरे समाज, मेरे देष
मेरे धर्म तक फैलता जाता है
मेरा छोटा सा मकान,
एक ऐसे मकान मे तब्दील होता जाता है
जिमसे बडे बडे महल हैं
टूटे फूटे झोपड़े हैं
बडी बडी पगडंडियां हैं,
बडी बडी गाडियां हैं
नंग धडंग नाक चुआते बच्चे हैं
गोल मटोल खूबसूरत बच्चे हैं
कहीं खूबसूरत झरने तो कहीं गंदे नाले हैं
इन सब के अलावा
मेरे श्मैश् को दिख्ती हैं
परदे के पीछे से झांकती उदास ऑखें
अपनी सीमा रेखा के पार जाती तितलियां
गरीबी अमीरी, नारों और वादों
झूठ व सच पर ही मेरा 'मै'नही टिकता
मेरा 'मै' विस्तार लेने लगता है
जहां द्वैत है तो अद्वैत है
आकार है तो निराकार है
द्वंद है तो द्वान्दातीत है
जंहा कोई सीमा रेखा नही है
जहां 'मै' के लिये कोई जगह नही
मुकेश इलाहाबादी ---------------
jindgi.....dhoop aur chaanv ke beech hi plti hai ,
ReplyDeletesb baaten,saari ghaten kbhi chltin,kbhi glti hain..
pranava bharti