रात जब
तुम्हारी आखों से
खुशी के दो बूँद
मेरी हथेली पे टपके थे
तब लगा था
जैसे --
हथेली पे खिल आये हों
गुलाब के दो फूल
और मेरा वजूद
महमहा गया था
किसी गुलशन सा
सुबह जब
अलसाई आखों से
तुमने अपनी लटों को
बिखेर दिया था
मेरे सीने और काँधे पे
तब लगा था
बादल बरस गया हो
पर्वत के सीने पे
और मुस्कुरा उठी हो कायनात
घर के कोने कोने मे
मुकेश इलाहाबादी ---------
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